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कालस्य चतुर्ष मासेषु एकत्र वावस्थान भ्रमणत्याग । स्थावरजङ्गमजीवाकुलो हि तदा क्षिति तदा भ्रमणे महानसयम , वृष्टया शीतवातपातेन वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकन्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नलेन कईमेन बाध्यत इति विशत्यधिक दिवसशत एकनावस्थानमित्ययमत्सर्ग । कारणापेक्षया तु हीनाधिक वासस्थान, सयताना आषाढशुद्धदशम्या स्थिताना उपरिष्टाच्च कातिकपौर्णमास्यास्त्रिशहिवसावस्थानम् । वष्टिबहलता. श्रतग्रहण. शक्त्यभाववैयावत्यकरण प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टकाल. | मार्या, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तर याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रान्ताया प्रतिपदादिषु दिनेष याति । यावच्च त्यक्ता विशति-दिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष दशक स्थितिकल्प ।" -विजयोदया टी० ए० ९१६ ।
आचार्य शान्तिसागर महाराज संघ सहित वर्षभर शोलापुर शहर में किस दृष्टि अथवा किस शास्त्रके आधारसे ठहरे रहे । इस सम्बन्धमें सघको अपनी दृष्टि स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे भविष्यमें दिगम्बर मुनिराजोमें शिथिलाचारिता और न बढ जाय ।
८-शका-अरिहत और अरहत इन दोनों पदोमें कौन पद शुद्ध है और कौन अशुद्ध ?
2-समाधान-दोनों पद शद है। आर्प-ग्रन्थोमें दोनों पदोंका व्यत्पत्तिपूर्वक अर्थ दिया गया है और दोनोको शुद्ध स्वीकार किया गया है। श्रीषट्खण्डागमकी धवला टीकाकी पहली पुस्तकमें आचार्य वीरसेनस्वामीने देवतानमस्कारसूत्र (णमोकारमत्र) का अर्थ देते हुए अरिहत और अरहत दोनोका व्युत्पत्तिअर्थ दिया है और लिखा है कि अरिका अर्थ मोहशत्र है उसको जो हनन (नाश) करते हैं उन्हें 'अरिहत' कहते हैं । अथवा अरि नाम ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मोका है उनको जो हनन (नाश) करते हैं उन्हें अरिहत कहते हैं। उक्त कर्मोके नाश हो जानेपर शेष अघाति कर्म भी भ्रष्ट (सडे) बीजके समान नि शक्तिक होजाते हैं और इस तरह समस्त कर्मरूप अरिको नाश करनेसे 'अरिहत' ऐसी सज्ञा प्राप्त होती है । और अतिशय पूजाके अह-योग्य होनेसे उन्हें अरहत या अर्हन्त ऐसी भौ पदवी प्राप्त होती है, क्यो कि जन्मकल्याणादि अवसरोपर इन्द्रादिको द्वारा वे पूजे जाते हैं । अत. अरिहत और अरहत दोनो शुद्ध हैं। फिर भी णमोकारमन्त्रके स्मरणमें 'अरिहत' शब्दका उच्चारण ही अधिक उपयुक्त है, क्योकि षट्खण्डागममें मूल पाठ यही उपलब्ध होता है और सर्वप्रथम व्याख्या भी इसी पाठकी पाई जाती है । इसके सिवाय जिन, जिनेन्द्र, वीतराग जैसे शब्दोका भी यही पाठ सीधा बोधक है । भद्रबाहकृत आवश्यक नियुक्तिमें भी दोनो शन्दोका व्युत्पत्ति अर्थ देते हए प्रथमत 'अरिहत' शब्दकी ही व्याख्या की गई है । यथा
अट्ठविह पि य कम्म अरिभूय होइ सव्वजीवाण । त कम्ममरि हता अरिहता तेण वुच्चति ॥९२०॥ अरिहति वदण-णमसणाइ अरिहति पूयसक्कार ।
सिद्धिगमण च अरिहा अरहता तेण वच्चति ॥९२१॥ ९-शका कहा जाता है कि भगवान आदिनाथसे मरीचि (भरतपुत्र) ने जब यह सुना कि उसे अन्तिम तीर्थंकर होना है तो उसको अभिमान आगया, जिससे वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करके नाना कुयोनियमि गया । क्या उसके इस अभिमानका उल्लेख प्राचीन शास्त्रोमें आया है ?
९-समाधान-हाँ, आया है। जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराणके अतिरिक्त भद्रबाहकृत आवश्यकनियंक्तिमें भी मरीचिके अभिमानका उल्लेख मिलता है और वह निम्न प्रकार है