SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थात् 'वे साधु शरीरमें निर्मम हुए जहां सूर्य अस्त हो जाता है वहाँ ठहर जाते हैं । कुछ भी अपेक्षा नही करते। और वे किसीसे बन्धे हुए नही, स्वतन्त्र हैं, बिजलीके समान दृष्टनष्ट है, इसलिये अपरिग्रह है। ७-शका-लोग कहते हैं कि दिगम्बर जैन मुनि वर्षावास (चातुर्मास) के अतिरिक्त एक जगह एक दिन रात या ज्यादासे ज्यादा पांच दिन-रात तक ठहर सकते है । पीछे वे वहाँसे दूसरी जगहको जरूर बिहार कर जाते है, इसे ये सिद्धान्त और शास्त्रोका कथन बतलाते हैं । फिर आचार्य शातिसागरजी महाराज अपने सघ सहित वर्षभर शोलापुर शहरमे क्यो ठहरे ? क्या कोई ऐसा अपवाद है ? ७-समाधान-लोगोका कहा ठीक है । दिगम्बर जैन मुनि गाँवमे एक रात और शहर में पांच रात तक ठहरते है । ऐसा सिद्धान्त है और उसे शास्त्रोम बतलाया गया है । मूलाचारमें और जटासिंहनन्दिके वरागचरितमें यही कहा है । यथा गामेयरादिवासी णयरे पचाहवासिणो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगतवासो' य ।।-मूला० ७८५ ग्रामैकरात्र नगरे च पञ्च समषरव्य नमन प्रचारा। न किचिदप्यप्रतिबाधमाना विहारकाले समितो विजिह ।।-वराग ३०-४५ परन्तु गांव या शहरमें वर्षों रहना मुनियोके लिए न उत्सर्ग बतलाया और न अपवाद । भगवती आराधनामें मुनियोके एक जगह कितने काल तक ठहरने और बादमे न ठहरनेके सम्बन्धमें विस्तृत विचार किया गया है। लेकिन वहां भी एक जगह वर्षों ठहरना मुनियोके लिये विहित नही बतलाया । नौवें और दशवें स्थितिकल्पोकी विवेचना करते हुए विजयोदया और मूलाराधना दोनो टीकाओमें सिर्फ इतना ही प्रतिपादन किया है कि ' नोबें कल्पमे मुनि एक एक ऋतुमे एक एक मास एक जगह ठहरते है । यदि ज्यादा दिन ठहरे तो 'उद्गमादि दोषोका परिहार नहीं होता, वसतिकापर प्रेम उत्पन्न होता है, सुखमें लम्पटपना उत्पन्न होता है, आलस्य आता है, सुकुमारताकी भावना उत्पन्न होती है, जिन श्रावकोके यहाँ आहार पूर्वमें हुआ था वहाँ ही पुनरपि आहार लेना पडता है, ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिए मुनि एक ही स्थानमें चिरकाल तक रहते नही हैं। दशवें स्थितिकल्पमें चतुर्मासमें एक ही स्थानपर रहने का विधान किया है और १२० दिन एक स्थानपर रह सकनेका उत्सर्ग नियम बतलाया है। कमती बढती दिन ठहरनेका अपवाद नियम भी इस प्रकार बतलाया है कि श्रुतग्रहण (अभ्यास), वृष्टिकी बहुलता, शक्तिका अभाव, वैयावृत्य करना आदि प्रयोजन हो तो ३६ दिन और अधिक ठहर सकते हैं अर्थात् आषाढशुक्ला दशमोसे प्रारम्भ कर कात्तिक पौर्णमासीके आगे तीस दिन तक एक स्थानमें और अधिक रह सकते हैं। कम दिन ठहरनेके कारण ये बतलाये है कि मरी रोग, दुर्भिक्ष, ग्राम अथवा देशके लोगोको राज्य-क्रान्ति आदिसे अपना स्थान छोडकर अन्य ग्रामादिकोमे जाना पडे, सघके नाशका निमित्त उपस्थित हो जाय आदि, तो मुनि चतुर्मासमे भी अन्य स्थानको विहार कर जाते हैं। विहार न करनेपर रत्नत्रयके नाशकी सम्भावना होती है । इसलिये आपाढ़ पूणिमा बीत जानेपर प्रतिपदा आदि तिथियोमें दूसरे स्थानको जा सकते हैं और इस तरह एकसौ बीस दिनोमें बीस दिन कम हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त वर्षों ठहरनेका वहाँ कोई अपवाद नही है । यथा "ऋतुषु षट्सु एककमेव वासमेका वसतिरन्यदा विहरति इत्यय नवम स्थितिकल्प । एकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमदगमदोष चन परिहतु क्षम । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, अलसता, सौकुमार्यभावता, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः। पज्जो समणकप्पो नाम दशम । वर्षा --२८७ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy