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________________ तन्वयणं सोऊण तिवई आप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अन्भहियजायहरिसो तस्स मरीई इम भणई ॥४३०।। जइ वासुदेवु पढमो मूआइ विदेहि चक्कवट्टित्त । । चरमो तित्थयराण होऊ अल इत्तिम मज्झ ॥४३१॥ १० शका-पूजा और अर्चा में क्या भेद है ? क्या दोनो एक हैं ? १० समाधान-यद्यपि सामान्यत दोनोमें कोई भेद नही है, पर्यायशन्दोके रूपमें दोनोका प्रयोग रूढ है तथापि दोनोमें कुछ सूक्ष्म भेद जरूर है। इस भेदको श्रीवीरसेनस्वामीने षट्खण्डागमके 'बन्धस्वामित्व' नामके दूसरे खण्डकी धवला-टीका पुस्तक आठमें इस प्रकार बतलाया है "चरु-वलि-पुष्फ-फल गध-धूप दीवादीहि समभत्तिपयासो अच्चण णाम । एदाहि सह अइदघय-कप्परुक्ख-महामह-सव्वदोभद्दादिमहिमाविहाण पूजा णाम ।" पृ० ९२ । अर्थात् चरु, वलि (अक्षत), पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप इत्यादिसे अपनी भक्ति प्रकाशित करना अर्चना (अर्चा) है और इन पदार्थों के साथ ऐन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष, महामह, सर्वतोभद्र आदि महिमा (धर्मप्रभावना)/ का करना पूजा है। ___तात्पर्य यह कि फलादि द्रव्योको चढा कर (स्वाहापूर्वक समर्पण कर) सक्षेपमें लघु भक्तिको प्रकट करना अर्चा है और उक्त द्रव्यो सहित समारोहपूर्वक विशाल भक्ति प्रकट करना पूजा है । ___ यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रध्वज आदि पूजामहोत्सवोका विधान वीरसेनस्वामीसे बहुत पहलेसे विहित है और जैन, शासनकी प्रभावनामें उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ११ शका-निम्न पद्य किस ग्रन्थका मूल पद्य है ? उसका मूल स्थान बतलायें ? सूखमाल्हादनाकार विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्ति क्रियानुमेया स्याचून कान्तासमागमे ।' ११ समाधान-उक्त पद्य अनेक ग्रन्थोमें उद्धृत पाग जाता है। आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (पृ० ७८) में इसे 'इति वचनात्' शब्दोके साथ दिया है। आचार्य अभयदेवने सन्मतिसूत्र-टीका (पृ० ४७८) में इस पद्य को उद्धृत करते हुए लिखा है "न च सौगतमतमेतत, न जैनमतमिति वक्तव्यम, 'सहभाविनो गुणा क्रमभाविन पर्याया' [ ] इति जैनैरभिघानात । तथा च सहभावित्व गुणाना प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम्-" इसके बाद उक्त पद्य दिया है। सिद्धिविनिश्चयटीकाकार बडे अनन्तवीर्यने इसी पद्यका निम्न प्रकार उल्लेख किया है ___ "कथमन्यथा न्यायविनिश्चये 'सहभुवो गुणा' इत्यस्य 'सुखमाल्हादनाकार ' इति निदर्शन स्यात् ।"-(टी० लि० पृ० ७६ ।) अभयदेव और अनन्तवीर्यके इन उल्लेखोंसे प्रतीत होता है कि गुणोंके सहभावीपना प्रतिपादन करने के लिए दृष्टान्तके तौरपर उसे अकलदेवने न्यायविनिश्चयमें कहा है। परन्तु न्यायविनिश्चय मूलमें यह पद्य उपलब्ध नही होता । हो सकता है उसकी स्वोपज्ञवृत्तिमें उसे कहा हो। मूलमें तो सिर्फ ११वी कारिकामें इतना ही कहा है कि 'गुणपर्ययवतव्य ते सहक्रमवृत्तय'। यदि वस्तुत यह पद्य न्यायविनिश्चयवृत्तिमें कहा -२८९ - न-३७
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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