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________________ प्रवान सम्पादकीय द्रष्टव्य है । 'धर्मकीति और समन्तभद्र' शीर्षक हमारा शोधपूर्ण लेख भी अवलोकनीय है, जिसमें उक्त विद्वानोंके हेतुओंपर विमर्श करनेके माय ही पर्याप्त नया अनुसन्धान प्रस्तुत किया गया है। ऐसे विपयोपर हमें उन्मुक्त दिमागमे विचार करना चाहिए और सत्यके ग्रहणमें हिचकिचाना नही चाहिए। प्रश्न २ और उसका समाधान सम्पादकने दूसरा प्रश्न उठाया है कि 'सिद्धसेनके न्यायावतार और समन्तभद्र के श्रावकाचारमें किसी पद (पद्य) को समान रूपसे पाये जानेपर समन्तभद्रको ही पूर्ववर्ती क्यो माना जाय? यह भी सम्भव है कि समन्तभद्रने स्वय उसे सिद्धसेनसे लिया हो और वह उससे परवर्ती हो?" सम्पादककी प्रस्तुत सम्भावना इतनी कच्ची, शिथिल और निर्जीव है कि उसे पुष्ट करने वाला एक भी प्रमाण नही दिया जा सकता और न स्वय सम्पादकने ही उसे दिया है। अनुसन्धानके क्षेत्रमें यह आवश्यक है कि सम्भावनाके पोपक प्रमाण दिये जायें, तभी उसका मूल्याकन होता है और तभी वह विद्वानो द्वारा आदत होती है। न्यायावतारमे समन्तभद्रके रत्नकरण्डका ही पद्य यहाँ उसीपर विमर्श किया जाता है। ऊपर जिन समन्तभद्रको बहुत चर्चा की गयी है, उन्हीका रचित एक श्रावकाचार है, जो सबसे प्राचीन, महत्त्वपूर्ण और व्यवस्थित श्रावकाचारका प्रतिपादक ग्रन्थ है । इसके आरम्भमें धर्मकी व्याख्याका उद्देश्य बतलाते हुए उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन रूप प्रकट किया गया है। सम्यग्दर्शनका स्वरूप उन्होने परमार्थदेव, शास्त्र और गुरुका दृढ एव अमूढ श्रद्धान कहा है। अतएव उन्हें इन तीनोका लक्षण बतलाना भी आवश्यक था। देवका लक्षण प्रतिपादन करनेके उपरान्त समन्तभद्र ने ९ पद्यके द्वारा शास्त्रका लक्षण निरूपित किया है। यह पद्य सिद्धसेनके न्यायावतारमें भी उसके ९वें पद्य के ही रूपमे पाया जाता है। उसपर सयुत्तिक विमर्श अब विचारणीय है कि यह पद्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारका मूल पद्य है या न्यायावतारका मूल पद्य है। श्रावकाचारमें यह जहाँ स्थित है वहाँ उसका होना आवश्यक और अनिवार्य है। किन्तु न्यायावतारमें जहाँ वह है वहां उसका होना आवश्यक एव अनिवार्य नहीं है, क्योकि वह पूर्वोक्त शब्द-लक्षण (का०८) के समर्थन में अभिहित है। उसे वहांसे हटा देनेपर ग्रन्थका अग-भग नही होता। किन्तु समन्तभद्रके श्रावकाचारसे उसे अलग कर देनेपर उसका अग भग हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि उक्त ९वा पद्य, जिसमें शास्त्रका लक्षण दिया गया है, श्रावकाचारका मूल है और न्यायावतारमें अपने विषय (८वें पद्यमें कथित १ जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, १२६ से १३३ । २. आप्तोपज्ञपनुल्लघमदृप्टेप्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापचघट्टनम् ॥ -रत्न. लो०९। दृष्टेष्टाव्याहताद्वावयात् परमार्थाभिधायिन ।। तत्वग्राहितयोत्पन्न माने जान्द प्रकीतितम् ।।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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