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________________ अवस्थामें भारवेद या भाव नहीं होता, जिससे पर्याप्त मनुष्यनियोंकी तरह अपर्याप्त मनुष्यनियों १४ गुणस्थान भी कहे जाते और इस लिये वहा भाववेद या भावलिङ्गको विवक्षा अविवक्षाका प्रश्न नही उठता । हा, पर्याप्त अवस्थामें सभी गुणस्थानोमें भाववेद होता है, इसलिये उनकी विवक्षा अविवक्षाका प्रश्न जरूर उठता है। अत यहाँ भावलिंगकी दिवसासे १४ और द्रव्यलिंगको अपेक्षा से प्रथमके पांच ही गुणस्थान बतलाये गये हैं। इन दो निष्कयपरसे स्त्रीमुक्ति-निषेधकी मान्यतापर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है और यह मालूम हो जाता है कि स्त्रीमुक्ति-निषेधकी मान्यता कुन्दकुन्दकी अपनी चीज नही है किन्तु वह भ० महावीरकी ही परम्पराकी चीज है और जो उन्हें उक्त सूत्रों भूतबलि और पुष्पदन्तके प्रवचनोके पूर्व से चली आती हुई प्राप्त हुई है । तीसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि यहाँ सामान्य मनुष्यणीका ग्रहण है—प्रयमनुष्याणी या द्रव्यस्त्रीका नहीं, क्योंकि अकलदेव भी पर्याप्त मनुष्यनियोके १४ गुणस्थानोका उपपादन भावलिंगको अपेक्षासे करते हैं और द्रव्यलिंगकी अपेक्षासे पांच ही गुणस्थान बतलाते हैं । यदि सूत्रमें द्रव्यमनुष्यनी या द्रव्यस्त्रीमात्रका ग्रहण होता तो वे सिर्फ पांच ही गुणस्थानोंका उपपादन करते, भावलिंगकी अपेक्षासे १४ का नही । इसलिये जिन विद्वानोका यह कहना है कि 'सूत्र' में पर्याप्त शब्द पता है यह अच्छी तरह सिद्ध करता है कि द्रव्यस्त्रीका यहाँ ग्रहण है क्यो कि पर्याप्तियाँ सब पुद्गल द्रव्य ही हूँ' 'पर्याप्तस्त्रीका ही द्रव्यस्त्री अर्थ है " वह सगत प्रतीत नही होता, क्योकि अकलकदेवके विवेचनसे प्रकट है कि यहाँ 'पर्याप्तस्त्री' का अर्थ द्रव्यस्त्री नही है और न द्रव्यस्त्रीका प्रकरण है किन्तु सामान्यस्त्री उसका अर्थ है और उसीका प्रकरण है और भावलिंगकी अपेक्षा उनके १४ गुणस्थान हैं। दूसरे, यद्यपि पर्याप्तियाँ पुद्गल है लेकिन पर्याप्तकर्म तो जीवविपाकी है, जिसके उदय होनेपर ही 'पर्याप्तक' कहा जाता है । अत 'पर्याप्त' शब्दका अर्थ केवल द्रव्य नही है— भाव भी है । निष्कर्ष : अत तत्त्वार्थवातिकके इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि षट्ागमके ९३ सूत्रमें 'राजद' पर आवश्यक एव अनिवार्य है। यदि 'राजद' पद सूत्र में न हो तो पर्याप्त मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानका अलकदेवका उक्त प्रतिपादन सर्वथा असगत ठहरता है और जो उन्होंने भावलिंगको कपेक्षा उसकी उपपत्ति बैठाई है। तथा प्रथलिंगको अपेक्षा ५ गुणस्थान ही वर्णित किये हैं वह सब अनावश्यक और अयुक्त उद्धरता अतएव अकलदेव उक्त सूत्रमें 'राजद' पदका होना मानते हैं और उसका सयुक्तिक समर्थन करते हैं वीरसेनस्वामी भी अलकदेवके द्वारा प्रदर्शित इसी मार्ग पर पते हैं। अत यह निविवाद है कि उक्त सूत्रमे 'राजद' पद है और इसलिये ताम्रपत्रोपर उत्कीर्ण सूत्रोमें भी इस पदको रखना चाहिये तथा भ्रान्तिनिवारण एव स्पष्टीकरणके लिये उक्त सूत्र ९३ के फुटनोटमें तत्त्वार्थ राजवातिकका उपर्युक्त उद्धरण दे देना चाहिये । हमारा उन विद्वानोसे, जो उक्त सूत्र में 'सजद' पदकी अस्थिति बतलाते हैं, नम्र अनुरोध है कि वे तस्यार्थवालिक इस दिनकर प्रकाशकी तरह स्फुट प्रमाणोल्लेक्षके प्रकाशमें उस पदको देखें। यदि उन्होंने ऐसा किया तो मुझे आशा है कि वे भी भावलिगकी अपेक्षा उक्त सूत्रमें 'सजद' पदका होना मान लेंगे। श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से भी प्रार्थना है कि वे ताम्रपत्रमें उक्त सूत्रमें 'सजद' पद अवश्य रखें उसे हटायें नही। - १. प० रामप्रसादजी शास्त्रीके विभिन्न लेख और 'दि० जैन सिद्धान्तदर्पण' द्वितीयभाग, पृ० ८ और पृ० ४५ । - २४२ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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