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________________ ९३३ सूत्र में 'संजद' पदका सद्भाव सूत्रमे 'सजद' पद नही है पूर्व पक्षकी युक्तियां 'पट्खण्डागम' के उल्लिखित ९३। सूत्रमें 'ससद' पद है या नही ? इस विषयको लेकर काफी अरसे से चर्चा चल रही है। कुछ विद्वान उक्त सूत्रमें 'सजद' पदको अस्थिति बतलाते है और उसके समर्थनमें कहते हैं कि प्रथम तो यहाँ द्रव्यका प्रकरण है, अतएव वहां द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका ही निरूपण है। दूसरे, पट्खण्डागममें और कही आगे-पीछे द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका कथन उपलब्ध नहीं होता। तीसरे, वहाँ सूत्रमे 'पर्याप्त' शब्दका प्रयोग है जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक है । चौथे वीरसेन स्वामीकी टीका उक्तसूत्रमें 'सजद' पदका समर्थन नहीं करती, अन्यथा टीकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता। पांचवें, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूंकि षट्खण्डागममें ऐसा और कोई स्वतन्त्र सूत्र है नही, जो द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका विधान करता हो, तो दिगम्बर परम्पराके इस प्राचीनतम सिद्धान्तग्रन्थ पट्खण्डागमसे द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे और जो प्रो० हीरालालजी कह रहें हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुपग आवेगा। अत प्रस्तुत ९३वें सूत्रको 'सजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका विधायक समझना चाहिये। उक्त युक्तियोपर विचार १ षट्खण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गौरसे देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नही होता मूलग्रन्थ और उसकी टीकामे ऐसा कोई उल्लेख अथवा सकेत उपलब्ध नही है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित करता हो । विद्वद्वर्य प० मक्खनलालजी शास्त्रीने हालमें 'जैन बोधक' वर्ष ६२, अक १७ और १९में अपने दो लेखो द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। उन्होने मनुष्यगति सम्बन्धी उन पांचो ही ८९, ९०, ११, ९२, ९३-सूत्रोको द्रव्य प्ररूपक बतलाया है। परन्तु हमें ऐसा जरा भी कोई स्रोत नही मिलता, जिससे उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके। हम उन पांचो सत्रोको उत्थानिका वाक्य सहित नीचे देते हैं - "मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाह मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असजद-सम्माइट्ठि-ढाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।।८९॥ तत्र शेपगुणस्थानसत्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाहसम्मामिच्छाइट्ठि-सजदासजद-सजद-ट्ठाणे णियमा पज्जता ।।९।। मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहएव मणुस्सपज्जत्ता ।।९।। मानुषीषु निरूपणार्थमाह मणुसिणीसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइटि-टाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ।।९२।। -२४३
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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