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________________ वणित विषयोको कई जगह प्रमाणित किया है। अत तत्त्वार्थवात्तिक षटखण्डागमके इस प्रकरण-सवन्धी सूत्रोका जो खुलासा किया गया है वह सर्वके द्वारा मान्य होगा ही। तत्त्वार्थवातिकके उद्धरण मनुष्यगती मनुष्येषु पर्याप्तकेषु चतुर्दशापि गुणस्थानानि भवन्ति, अपर्याप्तके त्रीणि मिथ्यादृष्टि-सासादनसम्यग्दृष्टयसयतसम्यग्दृष्ट्याख्यानि । मानुषीपर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति भावलिङ्गापेक्षया, द्रव्यलिङ्गापेक्षेण तु पंचाद्यानि । अपर्याप्तिकासु द्वे आये, सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात् ।'-तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ३३१, अ० ९, सू०७ । इसे षट्खण्डागमके निम्न सूत्रोके साथ पढ़ेंषट्खण्डागमके सूत्र मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि असजदसम्माइटि-ट्टाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।। ८९ ॥ सम्मामिच्छाइट्रि-सजदासजद-सजद-ठाणे णियमा पज्जत्ता ॥१०॥ एव मणूस्स-पज्जत्ता ॥९१।। मणुसिणीसु मिच्छाइट्टि-सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ॥१२॥ सम्मामिच्छाइट्रि-असजदसम्माइटि-सजदासजद-सजवट्ठाणे णियमा पज्जतियाओ ॥१३॥ पट्खण्डागम और तत्त्वार्थवात्तिकके इन दोनो उद्धरणोपरसे पाठक यह सहजमें समझ जावेंगे कि तत्त्वार्थवात्तिकमें षट्खण्डागमका ही भावानुवाद दिया हुआ है और सूत्रोमें जहाँ कुछ भ्रान्ति हो सकती थी उसे दूर करते हुए सूमोंके हार्दका सुस्पष्ट शब्दो द्वारा खुलासा कर दिया गया है । राजवात्तिकके उपर्युक्त उल्लेखमें यह स्पष्टतया वतला दिया गया है कि पर्याप्त मनुष्पणियोंके १४ गुणस्थान होते हैं किन्तु वे भावलिंगको अपेक्षासे हैं, द्रव्यलिङ्गको अपेक्षासे तो उनके आदिके पांच ही गणस्थान होते हैं। इससे प्रकट है कि वीरसेनस्वामीने जो मावस्त्रीको अपेक्षा १४ गुणस्थान और द्रव्यस्त्रीकी अपेक्षा ५ गुणस्थान षट्खण्डागमके ९३ वे सूत्रकी टीकामें व्याख्यात किये है और जिन्हें ऊपर अकलकदेवने भी बतलाये है वह बहुत प्राचीन मान्यता है और वह सूत्रकारके लिये भी इष्ट है। अतएव सूत्र ९२ वें मे उन्होने अपर्याप्त स्त्रियोमें सिर्फ दो ही गुणस्थानोका प्रतिपादन किया है और जिसका उपपादन 'अपर्याप्तिकासु आधे, सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात्' कहकर अकलङ्कदेवने किया है । अकलदेवके इस स्फुट प्रकाशमें सूत्र ८९ और ९२ से महत्वपूर्ण तीन निष्कर्ष और निकलते हुए हम देखते हैं। एक तो यह कि सम्यग्दृष्टि स्त्रियों में पैदा नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था में स्त्रियोंके प्रथमके दो हो गुणस्थान कहे गये हैं जब कि पुरुपोमें इन दो गुणस्थानोके अलावा चौथा असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान भी बतलाया गया है और इस तरह उनके पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान कहे गये हैं। इसी प्राचीन मान्यताका अनुसरण और समर्थन स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डश्रावकाचार (श्लोक ३५) में किया है। इससे प्रकट है कि यह मान्यता कुन्दकुन्द या स्वामी समन्तभद्र आदि द्वारा पीछेसे नहीं गढी गई है। अपितु उक्त सूत्रकालके पूर्वसे ही चली आ रही है । दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अपर्याप्त अवस्थामे स्त्रियोके आदिके दो गुणस्थान और पुरुपोके पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान ही सभव होते हैं और इसलिये इन गुणस्थानोंको छोडकर अपर्याप्त -२४१ - न-३१
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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