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________________ 'संजद' पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत 'सजद' पदका विवाद षटखण्डागमके ९३वें सूबमें 'सजद' पद होना चाहिये या नहीं, इस विषयमें काफी समयसे चर्चा चल रही है । कुछ विद्वानीका मत है कि 'यहां द्रव्यस्त्रीका प्रकरण है और ग्रन्थके पूर्वापर सम्बन्धको लेकर वरावर विचार किया जाता है तो उसकी ('सजद' पदकी) यहाँ स्थिति नही ठहरती ।' अत पट्खण्डागमके ९३वें सूत्रमें 'सजद' पद नही होना चाहिये । इसके विपरीत दूसरे कुछ विद्वानोंका कहना है कि यहा (सूत्रमें) सामान्यस्त्रीका ग्रहण है और ग्रन्थके पूर्वापर सन्दर्भ तथा वीरसेनस्वामीकी टीकाका सूक्ष्म समीक्षण किया जाता है तो उक्त सूत्रमें 'सजद' पदको स्थिति आवश्यक प्रतीत होती है । अत यहा भाववेदकी अपेक्षासे 'सजद' पदका ग्रहण समझना चाहिये । प्रथम पक्षके समर्थक ५० मक्खनलाल जी मोरेना, प० रामप्रसादजी शास्त्री वम्बई, श्री १०५ क्षुल्लक सूरिसिंहजी और प० तनसुखलालजी काला आदि विद्वान् है । दूसरे पक्षके समर्थक प० बशीधरजी इन्दौर, १० खूबचन्दजी शास्त्री वम्बई, प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, ५० फुलचन्द्रजी शास्त्री बनारस और प० पन्नालालजी सोनी व्यावर आदि विद्वान् हैं। ये सभी विद्वान् जैनसमाजके प्रतिनिधि विद्वान् हैं। अतएव उक्त पदके निर्णयार्थ अभी हालमें बम्बई पचायतकी ओरसे इन विद्वानोको निमत्रित किया गया था। परन्तु अभी तक कोई एक निर्णयात्मक नतीजा सामने नहीं आया । दोनो ही पक्षके विद्वान् युक्तिवल, ग्रन्थसन्दर्भ और वीरसेनस्वामीकी टीकाको ही अपने अपने पक्षके समर्थनार्थ प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ तक मुझे मालूम है पट्खण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोके भावको बतलाने वाला वीरसेनस्वामीसे पूर्ववर्ती कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख किसीकी ओरसे प्रस्तुत नही किया गया है। यदि वीरसेनस्वामीसे पहले षट्खण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोका स्पष्ट अर्थ बतलानेवाला कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख मिल जाता है तो उक्त सूत्रमें 'सजद' पदकी स्थिति या अस्थितिका पता चल जावेगा और फिर विद्वानोके सामने एक निर्णय आ जाएगा। अकलकदेवका अभिमत अकलङ्कदेवका तत्त्वार्थवातिक वस्तुत एक महान् सद्रत्नाकर है। जैनदर्शन और जैनागम विषयका बहुविध और प्रामाणिक अभ्यास करनेके लिये केवल उसीका अध्ययन पर्याप्त है। अभी मैं एक विशेष प्रश्नका उत्तर दृढनेके लिए उसे देख रहा था। देखते हुए मुझे वहाँ 'सजद' पदके सम्बन्धमें बहुत ही स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण खुलासा मिला है। अकलदेवने शटखण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी समग्र सूर्धोका वहाँ प्रायः अविकल अनुवाद दिया है। इसे देख लेनेपर किसी भी पाठकको पटखण्डागमके इस प्रकरणके सूत्रोंके अर्थमें जरा भी सन्देह नही रह सकता। यह सर्वविदित है कि अकलदेव वीरसेन स्वामीसे पूर्ववर्ती हैं और उन्होने अपनी धवला तथा जयघवला दोनो टीकाओमें अफलनदेवके तत्त्वार्थवात्तिकके प्रमाणोल्लेखोंसे अपने -२४०
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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