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________________ x - (क) विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ।।२९।। x ये साधवो हतमला सुगति प्रयाताः। स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥ 'निर्वाणकाण्ड' और मुनि उदयकीर्तिकृत 'अपभ्रशनिर्वाणभवित' में भी पोदनपुरके वाहबली स्वामीकी अतिशय श्रद्धाके साथ वन्दना की गई है । यथा (ख) बाहूबलि तह वदमि पोदनपुर हत्थिनापुरे वदे। __ सती कुथु व अरिहो वाराणसीए सुपास पास च ॥-गा० न० २१ । (ग) बाहुबलिदेउ पोयणपुरमि, हउ वदमि माहसु जम्मि जम्मि। ऐसा जान पडता है कि कितने ही समयके बाद बाहुबलिस्वामीकी उक्त मूर्तिके जीर्ण होजानेपर उसका उद्धारकार्य और उस जैसी उनकी नयी मूर्तियां वहां और भी प्रतिष्ठित होती रही हैं। मदनकीर्तिके समयमें भी पोदनपुरमें उनकी अतिशयपूर्ण विशाल मूर्ति विद्यमान थी, जिसकी सूचना उन्होने पद्य दोम 'अद्यापि प्रतिभाति पोदनपुरे यो वन्धवन्ध सवै' शब्दोद्वारा की है और जिसका यह अतिशय था कि भन्योको उनके चरणनखोकी कान्तिमें अपने कितने ही आगे-पीछेके भव प्रतिभासित होते थे। मदनकोतिके प्राय समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती कन्नडकवि प० वोप्पणद्वारा लिखित एक शिलालेख न० ८५ (२३४)में, जो ३२ पद्यात्मक कन्नड रचना है और जो विक्रम सवत् १२३७ (शक स० ११०२)के लगभगका उत्कीर्ण है, चामुण्डरायद्वारा निर्मित दक्षिण गोम्मटेश्वरकी मूर्ति के निर्माणका इतिहास देते हुए बतलाया है कि चामुण्डरायको उक्त पोदनपुरके बाहुबलीकी मूतिके दर्शन करनेकी अभिलाषा हुई थी और उनके गुरुने उसे कुक्कुड साँसे व्याप्त और वीहड वनसे आच्छादित होजानेसे उसका दर्शन होना अशक्य तथा अगम्य बतलाया था और तब उन्होंने जैन बिद्री (श्रवणबेल्गोल)में उसी तरहको उनकी मूर्ति बनवाकर अपनी दर्शनाभिलाषा पूर्ण की थी । अत मदनकीतिको उक्त सूचना विचारणीय है और विद्वानोको इस विषयमें खोज करनी चाहिये । उपर्युक्त उल्लेखोपरसे प्रकट है कि प्राचीन कालमें पोदनपुरके बाहवलीका बहा माहात्म्य रहा है और इसलिये वह तीर्थक्षेत्रके रूप में जैनसाहित्यमें खासकर दिगम्बर साहित्यमें उल्लिखित एव मान्य है। ३. सम्मेदशिखर सम्मेद शिखर जमोका सबसे बडा तीर्थ है और इसलिये उसे 'तीर्थराज' कहा जाता है। यहाँसे चार तीर्थस्थरों (ऋषभदेव, वासुपूज्य, अरिष्टनेमि और महावीर)को छोडकर शेष २० तीर्थङ्करो और अगणित मुनियोंने सिद्ध-पद प्राप्त किया है। इसे जैनोके दोनो सम्प्रदाय (दिगम्बर और श्वेताम्बर) समानरूपसे अपना पूज्य तीर्थ मानते हैं। पूज्यपाद देवनन्दिने अपनी 'सस्कृतनिर्वाणभक्ति में लिखा है कि बीस तीर्थकरोने यहसि परिनिर्वाणपद पाया है । यथा(क) शेषास्तु ते जिनवरा जित-मोहमल्ला ज्ञानार्क-भूरिकिरणैरवभास्य लोकान् । स्थान पर निरवधारितसौख्यनिष्ठ सम्मेदपर्वतले समवापुरीशा ॥२५॥ इसी तरह 'प्राकृतनिर्वाणकाण्ड' और मुनि उदयकीर्तिकृत 'अपभ्रशनिर्वाणभक्ति में भी सम्मेदपर्वतसे बीस जिनेन्द्रोने निर्वाण प्राप्त करनेका उल्लेख है और जो निम्न प्रकार है -२२८
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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