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(ख) वीस तु जिणवरिंदा अमरासुर-वदिदा धुद-किलेसा । ___ सम्मेदे गिरिसिहरे निव्वाणगया णमो तेसि ॥२॥-नि० का० । (ग) सम्मेद-महागिरि सिद्ध जे वि, हउ वदउ वीस-जिणिंद ते वि |-अ० नि० भ० ।
इस तरह इस तीर्थका जैनधर्ममें वहा गौरवपूर्ण स्थान है। प्रतिवर्ष सहस्रों जैनी भाई इस सिद्धतीर्थकी वन्दनाके लिये जाते है। यह विहारप्रान्तके हजारीबाग जिलेमें ईसरी स्टेशनके, जिसका अब पारसनाथ नाम हो गया है, निकट है। इसे 'पारसनाथ हिल' (पार्श्वनाथका पहाड) भी कहते है, जिसका कारण यह है कि पर्वतपर २३वें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथका सबसे बडा और प्रमुख जिनमन्दिर बना हुमा है। और इसके कारण ही उक्त स्टेशनका नाम भी 'पारसनाथ' हो गया है। मदनकीतिने इस सिद्धक्षेत्रका उल्लेख पद्य ११ में किया है।
४ पावापुर यहाँसे अन्तिम तीर्थकर वद्ध मान-महावीरने निर्वाण प्राप्त किया है । अतएव पावापुर जनसाहित्यमें सिद्धक्षेत्र माना जाता है । आचार्य पूज्यपादने लिखा है
पावापुरस्य बहिरुन्नतभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवता सरसा हि मध्ये । श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा ॥
-निर्वा० भ० २४ । निर्वाणकाण्ड और अपभ्रश-निर्वाणभक्तिमें भी यही बतलाया है। यथा(क) पावाए णिन्वुदो महावीरो-नि० का० गा० १ । (ख) पावापुर वदउ वड्ढमाणु, जिणि महियलि पयडिउ विमलणाणु ।-अ० नि० भ० ।
यह पावापुर परम्परासे विहारप्रान्तमे माना जाता है जो पटनाके निकट है। गुणावासे १३ मोलको दूरीपर है और वहाँ मोटर, तांगे आदिसे जाते हैं । यहाँ कार्तिक वदी अमावस्याको भगवान महावीरके निर्वाणदिवसोपलक्ष्यमें एक बड़ा मेला भरता है। यहाँ वीरजिनेन्द्रकी सातिशय मूर्ति रही है, जिसका मदनकीतिने पद्य १९में उल्लेख किया है । अब तो वहां चरणपादुका शेष रही हैं।
यहाँ उल्लेखनीय है कि परातत्त्वविद् और ऐतिहासिक विद्वानोने उत्तर प्रदेशमें कुशीनगरके पास पावानगर (फाजिल नगर)को भगवान महावीरकी निर्वाणभूमि माना एव सिद्ध किया है। निर्वाण-दिवसपर यहाँ जनसमुदाय एकत्रित होता और निर्वाण दिवस मनाता है।
५ गिरनार (ऊर्जयन्तगिरि) यहाँसे २२वे तीर्थहर अरिष्टनेमिने निर्वाण प्राप्त किया है और असख्य ऋषि-मुनियोने भी यहाँ तप करके सिद्धपद पाया है। अतएव यह सिद्धतीर्थ है। आचार्य पूज्यपादने कहा है कि जिन 'अरिष्टनेमिकी इन्द्रादि और जैनेतर साधजन भी अपने कल्याणके लिये उपासना करते हैं उन अरिष्टनेमिने अष्टकर्मोको नाशकर महान ऊर्जयन्तगिरि-गिरनारसे मक्तिपद प्राप्त किया। यथा
यत्प्रार्थ्यते शिवमय विबधेश्वराचे पाखण्डिभिश्च परमार्थ-गवेष-शील.। नष्टाऽष्ट-कर्म-समये तदरिष्टनेमि सम्प्राप्तवान् क्षितिधरे बृहदूर्जयन्ते ।।२३।।
१. 'पावा समीक्षा', 'प्राचीन पावा', 'पावाकी झांकी' आदि पुस्तकें ।
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