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________________ प्रतिष्ठित थी, जिसका उल्लेख मदनकीर्तिने इस रचनाके प्रथम पद्य में सबसे पहले और बड़े गौरवके साथ किया है और 'अद्य' शब्दका प्रयोग करके अपने समयमें उसका होना तथा देवोद्वारा भी उसकी वन्दना किया जाना खासतौरसे सूचित किया है। मालूम नही, अब यह मूर्ति अथवा उसके चिह्नादि वहां मौजूद हैं या नही? पुरातत्वप्रेमियोको इसकी खोज करनी चाहिए । २ पोदनपुर पोदनपुरकी स्थितिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोने विचार किया है। डाक्टर जैकोबी विमलसूरिकृत 'पउमचरिय'के आधारसे पश्चिमोत्तरसीमाप्रान्त में स्थित 'तक्षशिला'को पोदनपुर बतलाते हैं और डाक्टर गोविन्द पै हैदराबाद-बरारमें निजामाबाद जिलेके 'वोधन' नामक एक ग्रामको पोदनपुर कहते हैं। वा० कामताप्रसादजी जैनने इन दोनो मतोकी समीक्षा करते हुए जैन और नेतर साहित्यकी माक्षी द्वारा प्रमाणित किया है कि तक्षशिला पोदनपुरसे भिन्न पश्चिमोत्तरसीमाप्रान्तमें अवस्थित थी और पोदनपुर दक्षिणभारतमें गोदावरीके तटपर कही बसा हुआ था। भगवज्जिनसेनके परमशिष्य और विक्रमकी ९वी शताब्दीके विद्वानाचार्य गणभद्र ने अपने उत्तरपुराणमें स्पष्ट लिखा है कि 'भारतके दक्षिणमें सुरम्य (अश्मक) नामका एक बडा (महान्) देश है उसमें पोदनपुर नामक विशाल नगर है जो उस देशको राजधानी है । श्रीकामताप्रसादजोने यह भी बतलाया है कि जैन पुराणोमे पोदनपुरको पोदन, पोदनापुर, पोदन और पौदन्य तथा बौद्धग्रन्थो में दक्षिणापथके अश्मक देश की राजधानी पोतन या पोतलि एव हिन्द्रग्रन्थ भागवतपुराणमे इक्ष्वाकुवणीय राजाओकी अश्मक देशको राजधानी पौदन्य कहा गया है और वह प्राचीन समयमें एक विख्यात नगर रहा है। जैन इतिहासमें पोदनपुरका उल्लेखनीय स्थान है। आदिपुराण आदि जैनग्रन्थों और अनेक गिलालेखोंमें वणित है कि आदितीर्थद्वार ऋपभदेवके दो पुत्र थे-भरत और बाहुबलि । ऋषभदेव जब ससारसे विरवत हो दीक्षित हए तो उन्होने भरतको अयोध्याका और बाहुबलिको पोदनपुरका राज्य दिया और इस तरह भरत अयोध्याके और बाहवलि पोदनपुरके राजा हुए । कालान्तरमें इन दोनो भाइयोका युद्ध हुमा । युद्धमे वाहुबलिकी विजय हई। परन्तु वाइबलि ससारकी दशा देखकर राज्यको त्याग तपस्वी हो गये और कठोर तपकर पोदनपुरमं उन्होने केवलज्ञान प्राप्त करके निर्वाण-लाभ किया। बादको सम्राट् भरतने अपने विजयी, अद्भुत त्यागी तथा अद्वितीय तपस्वी और इस युगमे सर्वप्रथम परमात्मपद एवं परिनिर्वृत्ति प्राप्त करनेवाले अपने इन आदर्श भाईकी यादगारमें पोदनपुरमे ५२५ धनुषप्रमाण उनकी पारीराकृतिके अनुरूप अनुपम मूर्ति स्थापित कराई, जो बडी ही मनोज्ञ और लोकविश्रुत हुई । तबसे पोदनपुर सिद्धतीर्थ और अतिशयतीर्थ के रूपमे जैनसाहित्यमें विथत है। आचार्य पूज्यपादने अपनी निर्वाणभवितमें उसका सिद्धतीफे रूपमें समुल्लेख किया है । यथा १ 'पोदनपुर और तक्षशिला' गीर्षक लेख, 'जैन एन्टीक्वेरी' भा० ४ कि० ३ । २ जम्बूविभूषणे द्वीपे भरते दक्षिणे महान् । गुरम्यो विषयरतम विस्तीर्ण पोदन पुरम् ॥ ३ शिलालेख न० ८५ भादि, जो विन्ध्यगिरिपर उत्कीर्ण है।-(मि०म० १० १६९)। ४. वह यह वि. राज्य जैसे जघन्य स्वार्थ के लिए भाई-भाई भी लटते है और एक दूगरेको जानके मन बन जाते हैं। -२२७
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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