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________________ हेतुका प्रयोजक समस्तरूपसम्पत्तिको और हेत्वाभामका प्रयोजक असमस्तरूपसम्पत्तिको बतलाकर उन रूपोंका सकेत किया है। वाचस्पतिने' उनकी स्पष्ट परिगणना भी कर दी है। वे पांच रूप हैं-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व । इनके अभावसे हेत्वाभास पांच ही सम्भव हैं। जयन्तभटने तो स्पष्ट लिखा है कि एक-एक रूपके अभावमें पांच हेत्वाभास होते हैं । न्यायसूत्रकारने एकएक पृथक् सूत्र द्वारा उनका निरूपण किया है। वात्स्यायनने हेत्वाभासका स्वरूप देते हुए लिखा है कि जो हेतुलक्षण (पचरूप) रहित हैं परन्तु कतिपय रूपोके रहनेके कारण हेतु-सादृश्यसे हेतुकी तरह आभासित होते हैं उन्हे अहेतु अर्थात् हेत्वाभास कहा गया है । सर्वदेवने भी हेत्वाभासका यही लक्षण दिया है । कणादने' अप्रसिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध ये तीन हेत्वाभास प्रतिपादित किये हैं। उनके भाष्यकार प्रशस्तपादन उनका समर्थन किया है। विशेष यह है कि उन्होंने काश्यपकी दो कारिकाएँ उधृत करके पहली द्वारा हेतुको त्रिरूप और दूसरी द्वारा उन तीन रूपोंके अभावसे निष्पन्न होनेवाले उक्त विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध तीन हेत्वाभासोको बताया है। प्रशस्तपादका एक वैशिष्टय और उल्लेख्य है । उन्होने निदर्शनके निरूपण-सन्दर्भमें बारह निदर्शनाभासोका भी प्रतिपादन किया है, जबकि न्यायसूत्र और न्यायभाष्य में उनका कोई निर्देश प्राप्त नही है। पांच प्रतिज्ञाभासो (पक्षाभामों) का भी कथन प्रशस्तपादने या है. जो बिल्कुल नया है। सम्भव है न्यायसत्रमें हेत्वाभासोंके अन्तर्गत जिस कालातीत (बाधितविषयकालात्ययापदिष्ट) का निर्देश है उसके द्वारा इन प्रतिज्ञाभासोका सग्रह न्यायसूत्रकारको अभीष्ट हो । सवंदेवने° छह हेत्वाभास बताये है। उपायहृदयमें आठ हेत्वाभासोका निरूपण है। इनमें चार (कालातीत, प्रकरणसम, सव्यभिचार और विरुद्ध) हेत्वाभास न्यायसूत्र जैसे ही हैं तथा शेष चार (वाक्छल, सामान्यछल, सशयसम और वर्ण्यसम) नये हैं। इनके अतिरिक्त इसमें अन्य दोषोका प्रतिपादन नही है। पर न्यायप्रवेशमें२ पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास इन तीन प्रकारके अनुमान-दोषोका कथन है। पक्षामासके नौ3, हेत्वाभासके तीन, दष्टान्ताभासके१५ दश भेदोका सोदाहरण निरूपण है। विशेष यह कि अनैकान्तिक हेत्वाभासके छह भेदोमें १ न्यायवा० ता० टी० १२।४, पृष्ठ ३३० । २ हेतो पचलक्षणानि पक्षधर्मत्वादीनि उक्तानि । तेषामेकैकापाये पच हेत्वाभासा भवन्ति असिद्ध-विरुद्ध अनकान्तिक-कालात्ययापदिष्ट-प्रकरणसमा ।-न्यायकलिका पृ०१४ । न्यायम० पृ० १०१ । ३ हेतुलक्षणाभावादहेतवो हेतुमामान्याद्ध तुवदाभासमाना ।-न्यायभा० १।२।४ की उत्थानिका, पृ० ४ प्रमाणम० पृष्ठ ९ । ५ वै० सू० ३।१।१५ । ६ प्रश० भा० पृ० १००-१०१ । ७ प्रश० भा० पृ० १०० । ८ प्र० भा०, पृ० १२२, १२३ । ९ वही, पृ० ११५ । १० प्रमाणम० पृष्ठ ९ । ११ उ० हृ० पृ० १४ । १२ एषा पक्षहेतु दृष्टान्ताभासाना वचनानि साधनाभासम् ।--ज्या० प्र०, पृ० २-७ । १३, १४, १५ वही, २,३-७ । - १५२ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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