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________________ (युक्तियो) के द्वारा किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि उम कालमें अन मानको भी श्रुतिकी तरह ज्ञानका एक साधन माना जाता था-उसके बिना दर्शन अपूर्ण रहता था। यह सच है कि अनुमानका 'अनुमान' शब्दसे व्यवहार होने की अपेक्षा 'वाकोवाक्यम' 'आन्वीक्षिको', 'तर्कविद्या', हेतूविद्या' जैसे शब्दों द्वारा अधिक होता था। प्राचीन जैन वाइमयमें ज्ञानमीमासा (ज्ञानमार्गणा) के अन्तर्गत अनुमानका 'हेतुवाद' शब्दसे निर्देश किया गया है और उसे श्रुतका एक पर्याय (नामान्तर) बतलाया गया है । तत्त्वार्थसत्रकारने उसे अभिनिवोध नामसे उल्लेखित किया है । तात्पर्य यह है कि जैन दर्शनमें भी अनुमान अभिमत है तथा प्रत्यक्ष (मान्यवहारिक और पारमार्थिक ज्ञानो) की तरह उसे भी प्रमाण एव अर्थनिश्चायक माना गया है। अन्तर केवल उनमें वैशद्य और अवैशद्यका है। प्रत्यक्ष विशद है और अनुमान अविशद (परोक्ष)। अनुमानके लिए किन घटकोकी आवश्यकता है, इसका आरम्भिक प्रतिपादन कणादने किया प्रतीत होग है । उन्होने अनुमान का 'अनुमान' शब्दसे निर्देश न कर 'लैङ्गिक' शब्दसे किया है, जिससे ज्ञात होता है कि अनुमानका मुख्य घटक लिङ्ग है । सम्भवत इसी कारण उन्होंने मात्र लिङ्गों, लिङ्गरूपो और लिङ्गाभापोका निरूपण किया है, उसके और भी कोई घटक है इसका कणादने कोई उल्लेख नही किया। उनके भाष्यकार प्रशस्तपादने अवश्य प्रतिज्ञादि पांच अवयवोको उसका घटक प्रतिपादित किया है। तर्कशास्त्रका निबद्धरूपमें स्पष्ट विकास सक्षपादके न्यायसूत्रमें उपलब्ध होता है । अक्षपादने अनुमानको 'अनमान' शब्दमे ही उल्लेखित किया तथा उसकी कारणसामग्री, भेदो, अवयवो और हेत्वाभासोका स्पष्ट विवेचन किया है । साथ ही अनुमानपरीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, उल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमानसहायक तत्त्वोका प्रतिपादन करके अनुमानको शास्त्रार्योपयोगी और एक स्तर तक पहुंचा दिया है । वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन और गङ्गेशने उसे विशेष परिष्कृत किया तथा व्याप्ति, पक्षधर्मता, मर्श जैसे तदुपयोगी अभिनव तत्त्वोंको विविक्त करके उनका विस्तृत एव सूक्ष्म निरूपण किया है । वस्तुत अक्षपाद और उनके अनुवर्ती ताकिकोने अनुमानको इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन न्याय (तर्कअनुमान) दर्शनके नामसे ही विश्रुत हो गया। असग, बसुबन्धु, दिड्नाग, धर्मकीर्ति प्रभृति बौद्ध ताकिकोने न्यायदर्शनकी समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयी मान्यताओके आधारपर अनमानका सूक्ष्म और प्रचुर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तनका अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन तमग्न भारतीय तर्कगास्त्र उमसे प्रभावित हमा और अनमानकी विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़ने के माथ सूक्ष्म-से-सक्ष्म एव जटिल होती गयी। वास्त में बौद्ध ताकिको चिन्तनने तर्कमें आयी कुण्ठाको हटाकर और सभी प्रकारके परिवेशोको दूर कर उन्मुक्तभावसे तत्त्वचिन्तनकी क्षमता प्रदान को । फलत सभी दर्शनोमें स्वीकृत मनमानपर अधिक विचार हुआ और उसे महत्त्व मिला। ईश्वरकृष्ण, युवितदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु आदि साख्यविद्वानो, प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि प्रभूति मीमामकचिन्तकोने भी अपने-अपने ढगसे अनुमानका चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन निन्तकोका चिन्तन-विषय प्रकृति-पुरुष और क्रियाकाण्ड होते हुए भी वे अनमान-चिन्तनसे अछूने नहीं रहे । श्रुतिके आलावा अनमानको भी इन्हें स्वीकार करना पटा और उसका कम-बद विवेचन दिया है। १. श्रोतव्य प्रतिवाक्येन्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि । मत्वा च सतत ध्येय एते दर्शनहेतव ॥
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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