SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवादका निरसन किया। इसी प्रकार अवयवों, हेतुओं, हेत्वाभासों एव अनुमान-प्रकारोके सम्बन्धमें वर्तमान विप्रतिपत्तियोका भी उन्होने समाधान प्रस्तुत किया और एक सुदृढ परम्परा स्थापित की । न्यायसूत्रके भाष्यकार वात्स्यायनने सूत्रोमें निर्दिष्ट अनुमानसम्बन्धी सभी उपादानोकी परिभाषाएँ अकित की और अनुमानको पुष्ट और सम्बद्ध रूप प्रदान किया है। यथार्थमे वात्स्यायनने गौतमको अमर बना दिया है। व्याकरणके क्षेत्रमें जो स्थान भाष्यकार पतजलिका है, न्यायके क्षेत्रमे वही स्थान वात्स्यायनका है । वात्स्यायनने सर्वप्रथम 'तत्पूर्वकम्' पदका विस्तार कर लिगलिंगिनो सम्बन्धदर्शनपूर्वकमनुमानम' परिभाषा अकित की । और लिंग-लिंगीके सम्बन्धदर्शनको अनुमानका कारण बतलाया। गौतमने अनुमानके त्रिविध भेदोका मात्र उल्लेख किया था। पर वात्स्यायनने उनकी सोदाहरण परिभाषाएँ भी निबद्ध की है। वे एक प्रकारका परिष्कार देकर ही सन्तुष्ट नही हए, अपितु प्रकारान्तरसे दूसरे परिष्कार भी प्रथित किये है। इन व्याख्यामूलक परिष्कारोके अध्ययन बिना गौतमके अनुमानरूपोको अवगत करना असम्भव है । अत अनुमानके स्वरूप और उसकी भेदव्यवस्थाके स्पष्टीकरणका श्रेय बहुत कुछ वात्स्यायनको है। अपने समयमें प्रचलित दशावयवकी समीक्षा करके न्यायसूत्रकार द्वारा स्थापित पचावयव-मान्यताका युक्तिपुरस्सर समर्थन करना भी उनका उल्लेखनीय वैशिष्टय है।" न्यायभाष्यमें साधर्म्य और वैधर्म्य प्रयुक्त हेतुरूपोकी व्याख्या भी कम महत्त्वकी नही है। द्विविध उदाहरणका विवेचन भी बहुत सुन्दर और विशद है। ध्यातव्य है कि वात्स्यायनने 'पूर्वस्मिन् दृष्टान्ते यो ती धौं साध्यसाधनभूती पश्यति, साध्येऽपि तयो साध्यसाधनभावमनुमिनोति ।" कहकर साधर्म्य दृष्टान्तको अन्वयदृष्टान्त कहने और अन्वय एव अन्वयव्याप्ति दिखानेका सकेत किया जान पडता है। इसी प्रकार 'उत्तरस्मिन् दृष्टान्ते तयोर्धर्मयोरेकस्यामावादितरस्पाभाव पश्यति, 'तयोरेकस्याभावावितरस्याभाव साध्येऽनमिनोतीति ।" शब्दों द्वारा उन्होने वैधयंदृष्टान्तको व्यतिरेकदृष्टान्त प्रतिपादन करने तथा व्यतिरेक एव व्यतिरेकव्याप्ति प्रदर्शित करनेकी ओर भी इंगित किया है। यदि यह ठीक हो तो यह वात्स्यायनकी एक नयी उपलब्धि है। सूत्रकारने हेतुका सामान्यलक्षण ही बतलाया है। पर वह इतना अपर्याप्त है कि उससे हेतुके सम्बन्धमें स्पष्टत जानकारी नहीं हो पाती । भाष्यकारने हेतु-लक्षणको उदाहरण द्वारा स्पष्ट करनेका सफल प्रयास किया है । उनका अभिमत है कि 'साध्यसाधन हेतुः' तभी स्पष्ट हो सकता है जब साध्य (पक्ष) तथा उदाहरणमें धर्म (पक्षधर्म हेतु) का प्रतिसन्धान कर उसमें साधनता बतलायी जाए। हेतु समान और असमान दोनो ही प्रकारके उदाहरण बतलाने पर साध्यका साधक होता है। यथा-न्यायसत्रकारके प्रतिज्ञालक्षण' को स्पष्ट करने के लिए उदा. हरणस्वरूप कहे गये 'शम्वोऽनित्य' को 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' १२ हेतुका प्रयोग करके सिद्ध किया गया है। तात्पर्य यह कि भाष्यकारने हेतुस्वरूपबोधक सत्रकी उदाहरणद्वारा विशद व्याख्या तो की ही है, पर 'साध्य १ न्यायभा०, ११११५, पृष्ठ २१ ।। २, ३, ४ वही, ११११५, पृष्ठ २१, २२ । ५ न्यायभा० १३११३२, पृष्ठ ४७। ६ वही, ११११३४, ३५, पृष्ठ ४८ । ७ वही, ११११३७, पृष्ठ ५० । ८ वही, ११३७, पृष्ठ ५० । ९ न्यायसू० १।१।३४, ३५ । १० 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' इति । उत्पत्तिधर्मकमनित्य दृष्टमिति । -न्यायभा० १।१।३४, ३५, पृष्ठ ४८, ४९ । ११ साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा-न्यासू० १।१३३ । १२ न्यायभा० १।१।३३, ३५, पृष्ठ ४८, ४९ । -१२४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy