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________________ मन इन पांच भेदोंका परिभाषासहित निर्देश किया है ।' अनुमान इन पांचसे सम्पन्न एवं सम्पूर्ण होता है । उनके बिना अनुमानका आत्मलाभ नही होता । अत अनुमानके लिए उनकी आवश्यकता असन्दिग्ध है । 'हेतु' शब्दका प्रयोग अनुमानके लक्षणमे, जो मात्र कारणसामग्रीको ही प्रदर्शित करता है, हमें नहीं मिलता, किन्तु उक्त पचावयवोके मध्य द्वितीय अवयवके रूप में 'हेतु' का और हेत्वाभासके विवेचन-सन्दर्भमें 'हेत्वाभासोका' स्वरूप अवश्य प्राप्त होता है। अनुमान-परीक्षाके प्रकरणमें रोध, उपघात और मादृश्यसे अनुमानके मिथ्या होनेकी आशका व्यक्त की है। इस परीक्षासे विदित है कि गौतमके समयमें अनुमानकी परम्परा पर्याप्त विकसित रूपमें विद्यमान थी-'वर्तमानाभावे सर्वाग्रहणम्, प्रत्यक्षानुपपत्ते '४ सूत्रमें 'अनुपपत्ति' शब्दका प्रयोग हेतुके रूपमें किया है। वास्तवमें 'अनुपपत्ति' हेतु पचम्यन्त की अपेक्षा अधिक गमक है। इसीसे अनुमानके स्वरूपको भी निर्धारित किया जा सकता है। एक बात और स्मरणीय है कि 'व्याहतत्वात् अहेतु ५ सूत्रमें 'अहेतु' शब्दका प्रयोग सामान्यार्थक मान लिया जाए तो गौतमकी अनुमान-सारणिमें हेतु, अहेतु और हेत्वाभास शब्द भी उपलब्ध हो जाते है। अतएव निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गौतम अनुमानके मूलभूत प्रतिज्ञा, साध्य और हेतु इन तीनो ही अगोके स्वरूप और उनके प्रयोगसे सुपरिचित थे। वास्तवमें अनुमानकी प्रमुख आधार-शिला गम्य-गमक (साध्य-साधन) भाव योजना ही है । इस योजनाका प्रयोगात्मक रूप साधर्म्य और वैधर्म्य दृष्टान्तोमें पाया जाता है। पचावयावाक्यकी साधर्म्य और वैधर्म्यरूप प्रणालीके मूललेखक गौतम अक्षपाद जान पड़ते हैं । इनके पूर्व कणादके वैशेषिकसूत्रमें अनुमानप्रमाणका निर्देश 'लैगिक' शब्दद्वारा किया गया है, । पर उसका विवेचन न्यायसूत्र में ही प्रथमत दृष्टिगोचर होता है । अत अनुमानका निबद्धरूपमें ऐतिहासिक विकासक्रम गौतमसे आरम्भकर रुद्रनारायण पर्यन्त अकित किया जा सकता है। रुद्रनारायणने अपनी तत्त्वरोद्रीमे गगेश उपाध्याय द्वारा स्थापित अनुमानकी नव्यन्यायपरम्परामें प्रयुक्त नवीन पदावलीका विशेप विश्लेषण किया है। यद्यपि मूलभूत सिद्धान्त तत्त्वचिन्तामणिके ही हैं, पर भापाका रूप अधुनातन है और अवच्छेदकावच्छिन्न, प्रतियोगिताका भाव आदिको नवीन लक्षणावली में स्पष्ट किया है। गौतमका न्यायसूत्र अनुमानका स्वरूप, उसकी परीक्षा, हेत्वाभास, अवयव एव उसके भेदोंको ज्ञात करनेके लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । यद्यपि यह सत्य है कि अनुमानके निर्धारक तथ्य पक्षधर्मता, व्याप्ति और परामर्शका उल्लेख इसमें नहीं पाया जाता, तो भी अनुमानकी प्रस्तुत की गयी समीक्षासे अनुमानका पूरा रूप खडा हो जाता है। गौतमके समयमें अनुमान-सम्बन्धी जिन विशेष बातोंमें विवाद था उनका उन्होने स्वरूपविवेचन अवश्य किया है। यथा-प्रतिज्ञाके स्वरूप-निर्धारणके सम्बन्धमें विवाद था-कोई साध्यको प्रतिज्ञा मानता था, तो कोई केवल धर्मीको प्रतिज्ञा कहता था। उन्होंने साध्यके निर्देशको प्रतिज्ञा कहकर उस १ न्यायसू०, १।१।३२-३९ । २ वही, १।२।५-९ । ३ वही, २।११३८ । ४ वही, २।१।४३ । ५ वही, २११।२९ । ६ साध्यसाधात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् । तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम् ।-वही १११३६, ३७ । ७ तयोनिष्पत्ति प्रत्यक्षलैगिकाभ्याम् । अस्येद कार्य कारण सयोगि विरोधि समवायि चेति लैगिकम् । वैशेपिक सू० १०१।३, ९।२।१ । ८ साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा।-न्यायसू० ११ ११३३ । - १२३
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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