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जैन-दर्शन
यह धर्म की सामाजिक व्याख्या है । व्यक्ति केवल व्यक्तिगत साधना से धार्मिक नहीं हो सकता । धार्मिक बनने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति समाज की सेवा करे। जो व्यक्ति समाज की उपेक्षा करके धर्म की आराधना करना चाहता है वह वास्तव में धर्म से बहुत दूर है । यह दृष्टिकोण समाजवादी विचारधारा का पोषक और समर्थक है। इसे हम एकान्त समाजवाद (Absolute Socialism) का नाम दे सकते हैं। हबर्ट स्पेन्सर ने इसी धारणा कों दृष्टि में रखते हुए धर्म का स्वरूप इस ढंग से बताया कि धर्म विश्व को व्यापक रूप से समझने की एक काल्पनिक धारणा है। संसार के समस्त पदार्थ, एक ऐसी शक्ति की अभिव्यक्ति है, जो हमारे ज्ञान से परे है। स्पेन्सर की यह धारणा प्रादर्शवादी दृष्टिकोण के बहत समीप है । हेगल के समान स्पेन्सर ने भी धर्म के साथ दर्शन की विचारधारा का समन्वय किया है, ऐसा प्रतीत होता है। मक्दागार्ट ने इसी लक्षण को जरा और स्पष्ट करते हुए कहा : धर्म चित्त का वह भाव है जिसके द्वारा हम विश्व के साथ एक प्रकार के मेल का अनुभव करते हैं। जेम्सफ्रजर के शब्दों में धर्म, मानव से ऊँची गिनी जाने वाली उन शक्तियों की पाराधना है, जो प्राकृतिक व्यवस्था व मानव-जीवन का मार्गदर्शन व नियंत्रण करने वाली मानी जाती हैं । धर्म का उपरोक्त स्वरूप विचारात्मक व भावात्मक न होकर क्रियात्मक है, ऐमा मालूम होता है । अाराधना या पूजा मानसिक होने की अपेक्षा विशेष रूप से कायिक होती है, तथापि उसके अन्दर इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव नहीं होता। यदि ऐसा होता तो शायद आराधना करने की प्रेरणा ही न मिलती। जहाँ तक प्रेरणा की जागृति का प्रश्न है, इच्छाशक्ति अवश्य कार्य करती है । जिस समय वह प्रेरणा कार्यरूप में परिणत होती है, उस समय उसका क्रियात्मक रूप हो जाता है और वह कायिक श्रेणी में आ जाती है । जेम्स जर की उपरोक्त व्याख्या मानसिक व कायिक दोनों दृष्टियों से पारा बना का विधान करती है, यह वात इस विवेचना से स्पष्ट हो जाती है । विलियम जेम्स ने किसी उच्च शक्तिविशेप की पाराधना का विधान न कर के विश्वास के आधार पर ही धर्म की नींव