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धर्म, दर्शन और विज्ञान
वस्तुतः 'धर्म' से हमारा अभिप्राय इस समय उस शब्द से है, जिसे अंग्रेजी में रिलीजन' कहते हैं । अंग्रेजी के 'रिलीजन' शब्द से हमारे मन में जो स्थिर अर्थ जम जाता है, 'धर्म' शब्द से वैसा नहीं होता, क्योंकि 'रिलीजन' शब्द का एक विशेष अर्थ में प्रयोग होता हैं । 'रिलीजन' शब्द के एक निश्चित अर्थ को दृष्टि में रख कर ही भिन्न-भिन्न विचारक उस अर्थ को अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त करते हैं । उन सव रूपों में उस अर्थ की मूल भित्ति प्रायः एक सरीखी ही होती है । 'धर्म' शब्द के विषय में एकान्त रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता । 'रिलीजन' अर्थात् 'धर्म' शब्द का पाश्चात्य विचारकों ने किन-किन रूपों में क्या अर्थ किया है; इसे जरा देख लें । कान्ट के शब्दों में ग्रपने समस्त कर्तव्यों को ईश्वरीय प्रदेश समझना ही धर्म है । हेगल की धारणा के अनुसार 'धर्म' सीमित मस्तिष्क के भीतर रहने वाले अपने असीम स्वभाव का ज्ञान है अर्थात् सीमित मस्तिष्क का यह ज्ञान कि वह वास्तव में सीमित नहीं अपितु असीम है, धर्म है । मेयर्स ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि मानव - श्रात्मा का ब्रह्माण्ड - विषयक स्वस्थ और साधारण उत्तर ही धर्म है । इन तीन मुख्य व्याख्यात्रों के अतिरिक्त और भी ऐसी व्याख्याएँ हैं जिन्हें देखने से हमारी धर्मविषयक धारणाएँ बहुत कुछ स्पष्ट हो सकती हैं। व्हाइटहेड ने धर्म की व्यारया करते हुए कहा है : व्यक्ति अपने एकाकी रूप के साथ जो कुछ व्यवहार करता है वही धर्म है अर्थात् जिस समय व्यक्ति अपने को एकान्त में सर्वथा केला पाता है और यह समझता है कि जो कुछ उनका स्वरूप है वह यही व्यक्तित्व है, ऐसी अवस्था में उसका अपने साथ जो व्यवहार होता है: व्हाइटहेड की भाषा में वही धर्म है। यह धर्म का वैयक्तिक लक्षण हैं । व्यक्ति का अंतिम मूल्य व्य
स्वयं ही है, ऐसा मानकर धर्म को उपरोक्त व्यवस्था की गई है । यह दृष्टिको एकान्त व्यक्तिवाद ( Absolute Individualism) का सूचक है। अमेरिका के एक मनोविज्ञानशास्त्री आमेन ने धर्म को ठीक इससे विपरीत व्याख्या करते हुए कहा : जो रियर से प्रेम करता है वह अपने भाई से अवस्य प्रेम करता है ।