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जैन-दर्शन
स्याद्वाद को संकर दोष का सामना तब करना पड़ता, जब भेद अभेद हो जाता या अभेद भेद हो जाता। पाश्रय एक होने का अर्थ यह नहीं होता कि आश्रित भी एक हो जाएं । एक ही प्राश्रय में अनेक आश्रित रह सकते हैं। एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास होता है, फिर भी सब वर्ण एक नहीं हो जाते । एक ही वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों रहते हैं, फिर भी सामान्य और विशेष एक नहीं हो जाते । भेद और अभेद का प्राश्रय एक ही पदार्थ है, किन्तु वे दोनों एक नहीं हैं । यदि वे एक होते तो एक ही की प्रतीति होती, दोनों की नहीं। जब दोनों को भिन्न भिन्न रूप में प्रतीति होती है, तब उन्हें एकरूप कैसे कहा जा सकता है ?
५-जहाँ भेद है वहाँ अभेद भी है और जहाँ अभेद है वहाँ भेद भी है । दूसरे शब्दों में जो भिन्न है. वह अभिन्न भी.है. और जो अभिन्न है वह भिन्न भी है। भेद और अभेद दोनों परस्पर बदले जा सकते हैं। इसका परिणाम यह होगा कि स्याहाद को व्यतिकर दोष का सामना करना पड़ेगा।
जिस प्रकार संकर दोष स्याद्वाद पर नहीं लगाया जा सकता, उसी प्रकार व्यतिकर दोष भी स्याद्वाद का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । दोनों धर्म स्वतन्त्ररूप से वस्तु में रहते हैं और उनकी प्रतीति उभयरूप से होती है। ऐसी दशा में व्यतिकर दोष की कोई सम्भावना नहीं । जव भेद की प्रतीति स्वतन्त्र है और अभेद की स्वतन्त्र, तब भेद और अभेद के परिवर्तन की आवश्यकता ही क्या है ! ऐसी स्थिति में व्यतिकर दोष का कोई अर्थ नहीं । भेद का भेद रूप से और अभेद का अभेद रूप से ग्रहण करना, यही स्याहाद का अर्थ है । अतः यहाँ व्यतिकर जैसी कोई चीज ही नहीं है।
६-तत्त्व भेदाभेदात्मक होने से किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होने पाएगा । जहाँ किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा वहाँ संशय उत्पन्न हो जाएगा, और जहाँ संशय होगा वहाँ तत्त्व का ज्ञान ही नहीं होगा। .
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१-बौद्ध २-नैयायिक-वंशेपिक