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स्याद्वाद
वही वस्त्र संकोचशाली होता है और वही विकासशाली । यह नहीं कि उसका एक हिस्सा संकोच धर्म वाला है और दूसरा हिस्सा विकास धर्म वाला है । वस्तु के दो अलग अलग विभाग करके भेद और अभेद रूप दो भिन्न भिन्न धर्मों के लिए दो भिन्न भिन्न आश्रयों की कल्पना करना स्याहाद की मर्यादा से बाहर है। वह तो एकरूप वस्तु को ही अनेक धर्मयुक्त मानता है।
३-वह धर्म जिसमें भेद की कल्पना की जाती है और वह धर्म जिसमें अभेद को स्वीकृत किया जाता है, दोनों का क्या सम्बन्ध होगा? दोनों परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न ? भिन्न मानने पर पुन: यह प्रश्न उठता है कि वह भेद जिसमें रहता है उससे वह भिन्न है या अभिन्न ? इस प्रकार अनवस्था का सामना करना पडेगा । अभिन्न मानने पर भी यही दोष आता है। यह अभेद जिसमें रहेगा वह उससे भिन्न है अभिन्न ? दोनों अवस्थाओं में पुनः सम्बन्ध का प्रश्न खड़ा होता है। इस प्रकार किसी भी अवस्था में अनवस्था से मुक्ति नहीं मिल सकती।
अनवस्था के नाम पर यह दोष भी स्याद्वाद के सिर पर नहीं मढ़ा जा सकता। जैनदर्शन यह नहीं मानता कि भेद अलग है और वह भेद जिसमें रहता है वह धर्म अलग है। इसी प्रकार जैन दर्शन यह भी नहीं मानता कि अभेद भिन्न है और अभेद जिसमें रहता है वह धर्म उससे भिन्न है। वस्तु के परिवर्तनशील स्वभाव को ही भेद कहते हैं और उसके अपरिवर्तनशील स्वभाव का नाम ही अभेद है । भेद नामक कोई भिन्न पदार्थ पाकर उससे सम्बन्धित होता हो और उसके सम्बन्ध से वस्तु में भेद की उत्पत्ति होती हो, यह बात नहीं है । इसी प्रकार अभेद भी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, जो किसी सम्बन्ध से वस्तु में रहता हो । दस्तु स्वयं ही भेदाभेदात्मक है। ऐसी दशा में इस प्रकार के सम्बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता । जव सम्बन्ध का प्रश्न ही व्यर्थ है तव अनवस्था दोष की व्यर्थता स्वतः सिद्ध है, यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं ।
४-जहाँ भेद है वहीं अभेद है और जहाँ अभेद है वहीं भेद है। भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न पाश्रय न होने से दोनों एकरूप जाएंगे । भेद और अभेद की एकरूपता का अर्थ होगा संकर
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