________________
३१६
जैन-दर्शन को आश्रय देती है। दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है । एक के अभाव में पदार्थ अधूरा है। जब एक वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य मालूम होती है तो उसमें विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं हैं। विरोध वहाँ होता है जहाँ विरोध की प्रतीति हो। विरोध की प्रतीति के अभाव में भी विरोध की कल्पना करना सत्य को चुनौती देना है । जैन ही नहीं, बौद्ध भी चित्रज्ञान में विरोध नहीं मानते । जब एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास हो सकता है और उस ज्ञान में विरोध नहीं होता तो एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्मों की सत्ता मानने में क्या हानि है। नैयायिक चित्रवर्ण की सत्ता मानते ही हैं । एक ही वस्त्र में संकोच और विकास हो सकता है, एक ही वस्त्र रक्त और अरक्त हो सकता है, एक ही वस्त्र पिहित और अपिहित हो सकता है, ऐसी दशा में एक ही पदार्थ में भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता की सत्ता क्यों विरोधी है, यह समझ में नहीं आता। इसलिए स्याद्वाद पर यह आरोप लगाना कि वह परस्पर विरोधी धर्मों को एकत्र आश्रय देता है, मिथ्या है। स्याहाद प्रतीति को यथार्थ मानकर ही आगे बढ़ता है । प्रतीति में जैसा प्रतिभास होता है और जिसका दूसरी प्रतीति से खण्डन नहीं होता, वही निर्णय यथार्थ है-अव्यभिचारी है-अविरोधो है।
२-यदि वस्तु भेद और अभेद उभयात्मक है तो भेद का श्राश्रय भिन्न होगा और अभेद का आश्रय उससे भिन्न । ऐसी दशा में वस्तु की एकरूपता समाप्त हो जाएगी। एक ही वस्तु द्विरूप हो जाएगी।
यह दोष भी निराधार है । भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय मानने की कोई आवश्यकता नहीं। जो वस्तु भेदात्मक है वही वस्तु अभेदात्मक है। उसका जो परिवर्तन धर्म हैं, वह भेद की प्रतीति का कारण है । उसका जो ध्रौव्य धर्म है, वह अभेद की प्रतीति का कारण है । ये दोनों धर्म अखण्ड वस्तु के धम हैं। ऐसा कहना ठीक नहीं कि वस्तु का एक अंश भेद या परिवर्तन धर्म वाला है और दूसरा अंश अभेद या ध्रौव्य धर्मयुक्त है। वस्तु के टुकड़े-टुकड़े करके अनेक धर्मों की सत्ता स्वीकृत करना स्याद्वादी को इष्ट नहीं। जब हम वस्त्र को संकोच और विकासशील कहते हैं, तव हमारा तात्पर्य एक ही वस्त्र से होता है ।