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स्याद्वाद
शान्तरक्षित ने भी यही बात कही। स्याद्वाद, जो कि सत् और असत्, एक और अनेक, भेद और अभेद, सामान्य और विशेष जैसे परस्पर विरोधी तत्त्वों को मिलाता है, पागल व्यक्ति की वौखलाहट है । इसी प्रकार शंकर ने भी स्याद्राद पर पागलपन का आरोप लगाया। एक ही श्वास उष्ण और शीत नहीं हो सकता। भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, यथार्थता और अयथार्थता, सत् और असत्, अन्धकार और प्रकाश की तरह एक ही काल में एक ही वस्तु में नहीं रह सकते। इसी प्रकार के अनेक आरोप स्याद्वाद पर लगाए गए है। हम जितने आरोप लगाये गए हैं अथवा लगाए जा सकते हैं उन सब का एक-एक करके निराकरण करने का प्रयत्न करेगे ।
१-विधि और निषेध परस्पर विरोधी धर्म हैं। जिस प्रकार एक ही वस्तु नील और अनील.दोनों नहीं हो सकती, क्योंकि नीलत्व और अनीलत्व विरोधी वर्ण हैं, उसी प्रकार विधि और निषेध परस्पर विरोधी होने से एक ही वस्तु में नहीं रह सकते। इसलिए यह कहना विरोधी है कि एक ही वस्तु भिन्न भी है और अभिन्न भी है, सत् भी है और असत् भी है, वाच्य भी है और अवाच्य भी है। जो भिन्न है वह अभिन्न कैसे हो सकतो है। जो एक है वह एक ही है, जो अनेक है वह अनेक ही है। इसी प्रकार अन्य धर्म भी पारस्परिक विरोध सहन नहीं कर सकते । स्याद्वाद इस प्रकार के विरोधी धर्मों का एकत्र समर्थन करता है। इसलिए वह सदोष है । ___ यह दोषारोपण मिथ्या है। प्रत्येक पदार्थ अनुभव के आधार पर इसी प्रकार का सिद्ध होता है । एक दृष्टि से वह नित्य प्रतीत होता है और दूसरी दृष्टि से अनित्य । एक दृष्टि से एक मालूम होता है और दूसरी दृष्टि से अनेक । स्थाबाद यह नहीं कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता हे या जो एकता है वही अनेकता है । नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता आदि धर्म परस्पर विरोधी हैं यह सत्य है, किन्तु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है, वस्तु की दृष्टि से नहीं। वस्तु दोनों
द यह नहीं का है। नित्यता असत्य है, किन्ना
१-तत्त्वसंग्रह ३११-३२७ २-शारीरकभाष्य २.२१३३