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स्याद्वाद
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यह दोष भी व्यर्थ है । भेदाभेदात्मक तत्त्व का भेदाभेदात्मक ज्ञान होना संशय नहीं है । संशय तो वहाँ होता है जहाँ यह निर्णय न हो कि तत्त्व भेदात्मक है या अभेदात्मक है या भेद और भेद उभयात्मक है ? जब यह निर्णय हो रहा है कि तत्त्व भेद और प्रभेद उभयात्मक है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा । जहाँ निश्चत धर्म का निर्णय है वहाँ संशय पैदा नहीं हो सकता । जहाँ संशय नहीं वहाँ तत्त्वज्ञान होने में कोई बाधा नहीं । इसलिए संशयाश्रित जितने भी दोप हैं, स्याद्वाद के लिए सब निरर्थक हैं । ये दोप स्याद्वाद पर नहीं लगाए जा सकते ।
७——स्याद्वाद एकान्तवाद के बिना नहीं रह सकता । स्याद्वाद कहता है कि प्रत्येक वस्तु या धर्म सापेक्ष है । सापेक्ष धर्मों के मूल में जब तक कोई ऐसा तत्त्व न हो, जो सब धर्मो को एक सूत्र में बाँध सके, तब तक वे धर्मं टिक ही नहीं सकते। उन को एकता के सूत्र में वांधने वाला कोईन-कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए, जो स्वयं निरपेक्ष हो । ऐसे निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता मानने पर, स्याद्वाद का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक वस्तू सापेक्ष है, खण्डित हो जाता है ।
स्याद्वाद जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है । सब पदार्थों या धर्मो में एकता है, इसे स्याहाद मानता है । भिन्न-भिन्न वस्तुत्रों में प्रभेद मानना स्याद्वाद को अभीष्ट है । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि अनेक धर्मों में कोई एकता नहीं है । विभिन्न वस्तुनों को एक सूत्र में बांधने वाला श्रभेदात्मक तत्त्व अवश्य है, किन्तु ऐसे तत्त्व को मानने का यह अर्थ नहीं कि स्याद्वाद एकान्तवाद हो गया । स्याद्वाद एकान्तवाद तब होता जब वह भेद का खण्डन करता - अनेकता का तिरस्कार करता । अनेकता में एकता मानना स्याद्वाद को प्रिय है, किन्तु अनेकता का निषेध करके एकता को स्वीकृत करना, उसकी मर्यादा से बाहर है । 'सर्वमेकं सदविशेपात्' अर्थात् सब एक है, क्योंकि सब सत् है - इस सिद्धान्त को मानने के लिए स्याद्वाद तैयार है, किन्तु अनेकता का निषेध करके नहीं, अपितु उसे स्वीकृत करके । एकान्तवाद अनेकता का निषेध करता है - अनेकता को अयथार्थ मानता है-भेद को मिथ्या कहता है, जबकि अनेकान्तवाद एकता के साथ-साथ अनेकता को भी