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जैन-दर्शन गुण भी रहते है। घटरूप गुणी के देश की दृष्टि से देखा जाय तो अस्तित्व और अन्य गुणों में कोई भेद नहीं। ___ संसर्ग-जिस प्रकार अस्तित्व गुण का घट से संसर्ग है उसी प्रकार अन्य गुणों का भी घट से संसर्ग है । इसलिए संसर्ग की दृष्टि से देखने पर अस्तित्व और इतरगुणों में कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता। संसर्ग में भेद की प्रधानता होती है और अभेद की अप्रधानता। सम्बन्ध में अभेद की प्रधानता होती है और भेद की अप्रधानता। __ शब्द-जिस प्रकार अस्तित्व का प्रतिपादन 'है' शब्द द्वारा होता है उसी प्रकार अन्य गुणों का प्रतिपादन भी 'है' शब्द से होता है । 'घट में अस्तित्व है,' 'घट में कृष्णत्व है,' 'घट में कठिनत्व है' इन सब वाक्यों में 'है' शब्द घट के विविध धर्मों को प्रकट करता है । जिस 'है' शब्द से अस्तित्व का प्रतिपादन होता है उसी 'है' शब्द से कृष्णत्व, कठिनत्व यादि धर्मों का भी प्रतिपादन होता है । अतः शब्द की दृष्टि से भी अस्तित्व और अन्य धर्मों में अभेद है। अस्तित्व की तरह प्रत्येक धर्म को लेकर सकलादेश का संयोजन किया जा सकता है।
सकलादेश के अाधार पर जो सप्तभंगी बनती है उसे प्रमाणसप्तभंगी कहते हैं । विकलादेश की दृष्टि से जो सप्तमंगी बनती है वह नयसप्तभंगी है । सप्तभंगी क्या है ? एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रेतिषेध की विकल्पना सप्तभंगी हैं। प्रत्येक वस्तु में कोई भी धर्म विधि और निपेध उभयस्वरूप वाला होता है, यह हम देख चुके हैं। जब हम अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं तव नास्तित्व भी निपेधरूप से हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। जब हम सत् का प्रतिपादन करते हैं तब असत् भी सामने आ जाता है। जब हम नित्यत्व का कथन करते हैं तब अनित्यत्व भी निपेष रूप से सम्मुख उपस्थित हो जाता है ! किसी भी वस्तु के विधि और निपेध रूप दो पक्ष वाले धर्म का बिना विरोध के प्रतिपादन करने से जो सात प्रकार के विकल्प बनते हैं वह सप्तभंगी है। विधि और निपेषरूप धर्म का वस्तु में कोई विरोध नहीं है।
१ --- प्रश्नवशादेकस्मिन वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिपेधविकल्पना सप्तभंगी।
-तत्त्वार्थराजवार्तिक, १६