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जैन दर्शन
प्रकार हैं-स्वभाव, कारण, कार्य, एकार्थसमवायी और विरोधी'।
.वस्तु का स्वभाव ही जहाँ साधन (हेतु) बनता है वह स्वभावसाधन है । 'अग्नि जलाती है क्योंकि वह उष्णस्वभाव है,' 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कार्य है' आदि स्वभावसाधन या स्वभावहेतु के उदाहरण हैं।
अमुक प्रकार के मेघ देखकर वर्षा का अनुमान करना कारण साधन है । जिस प्रकार के बादलों के नभ में आने पर वर्षा होती है वैसे बादलों को देखकर वर्षा होने का अनुमान करना कारण से कार्य का अनुमान है। साधारण से कारण को देख कर कार्य का अनुमान नहीं किया जाता । उसी कारण से कार्य का अनुमान किया जा सकता है जिसके होने पर कार्य अवश्य होता है। बाधक कारणों का अभाव और साधक कारणों को सत्ता ये दोनों आवश्यक हैं। ___ . किसी कार्यविशेष को देखकर उसके कारण का अनुमान करना कार्य साधन है। प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण होता है । बिना कारण के कार्योत्पत्ति नहीं हो सकती । कारण और कार्य के सम्बन्ध का ज्ञान होने पर ही कार्य को देखकर कारण का अनुमान हो सकता है। नदी में बाढ़ पाती हुई देखकर यह अनुमान करना कि कहीं पर जोरदार वर्षा हुई है, कार्य से कारण का अनुमान है। धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करना भी कार्य से कारण का अनुमान है।
एक अर्थ में दो या अधिक कार्यों का एक साथ रहना एकार्थसमवाय है। एक. ही फल में रूप और रस साथ साथ रहते हैं । रूप को देखकर रस का अनुमान करना या रस को देखकर रूप का अनुमान करना, एकार्थसमवाय का उदाहरण है । रूप और रस में न तो कार्य-कारण भाव है, न रूप और रस का एक स्वभाव है। इन दोनों की एकत्रस्थिति एकार्थसमवाय के कारण है। .
१- 'स्वभावः कारणं कार्यमेकार्थसमवायि विरोधि चेति पंचधा साधनम्' ।
-प्रमाणमीमांसा ११२।१२