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ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र
इस निश्चय के लिए बत्ती, तेल आदि का ग्राधार लेना पड़ा । दूसरा उदाहरण लीजिए । एक जगह सफेद ढेर लगा हुआ है । हमें ऐसी प्रतीति हो रही है कि यह शक्कर है, किन्तु इसका निश्चय कैसे हो कि यह शक्कर ही है । उसमें से थोड़ी सी मात्रा उठा कर मुँह में डाल ली । मुँह मीठा हो गया । तुरन्त निश्चय हो गया कि यह शक्कर है । इस निर्णय के लिए पदार्थ के कार्य या परिणाम की प्रतीक्षा करनी पड़ी। स्वतः निर्णय न हो सका । यदि वही ढेर पहले देखा हुआ होता तो तुरन्त निर्णय हो जाता कि यह शक्कर का ढेर है । उस ग्रवस्था में होने वाला ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता । ग्रागे के परिणाम की प्रतीक्षा करने पर होने वाला प्रामाण्य - निश्चय परतः प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत है । जैन दर्शन स्वतः प्रामाण्यवाद और परतः प्रामाण्यवाद दोनों का भिन्न-भिन्न दृष्टि से समर्थन करता है । अभ्यासावस्था आदि में होने वाला निश्चय स्वतःप्रामाण्यवाद का साक्षी है । किसी अन्य ग्राधार पर होने वाला प्रामाण्य - निश्चय परतः प्रामाण्यवाद का समर्थक है ।
प्रसारण का फल :
प्रमाण के भेद-प्रभेद की चर्चा करने के पहले यह जानना ग्रावश्यक है कि प्रमाण का फल क्या है ? प्रमाण की चर्चा क्यों की जाय ? प्रमाण चर्चा से क्या लाभ है ? प्रमारण का प्रयोजन क्या है ? प्रमाण का मुख्य प्रयोजन अर्थप्रकाश है ।' अर्थ का ठीक-ठीक स्वरूप समझने के लिए प्रमाण का ज्ञान ग्रावश्यक है । प्रमारण ग्रप्रमाण के विवेक के बिना अर्थ के यथार्थ -ग्रयथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता । इसी बात को दूसरी तरह से यों कह सकते हैं—-प्रमारण का साक्षात् फल ग्रज्ञान का नाश है । केवलज्ञान के लिए उसका फल सुख और उपेक्षा है । शेष ज्ञानों के लिए ग्रहरण और त्यागबुद्धि है ।'
१ - 'फलमधं प्रकाशः '
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- वही १|१|३४
२ --- प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञानविनिवर्तनम् । केवलस्य सुखोपेक्ष, दोपस्यादानहानधीः ॥
- न्यायावतार २८