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जैन-दर्शन
और अप्रमाण का निर्णय तभी होता है जब वह वस्तु से मिलाया जाता है । जैसी वस्तु है वैसा ही ज्ञान होता है तो उसे हम प्रमाण कहते हैं । विपरीत ज्ञान होता है तो उसे हम अप्रमाण कहते हैं । नैयायिकों का यह सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद है । इसमें प्रामाण्य का निश्चय स्वतः न होकर परतः होता है । सांख्यदर्शन की मान्यता का भी उल्लेख कर देना चाहिए । सांख्यों की मान्यता है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनो स्वतः हैं । ग्रमुकज्ञान प्रमाण है या अमुक ज्ञान अप्रमाण है, ये दोनों निर्णय स्वतः होते हैं । यह मान्यता नैयायिकों से बिल्कुल विपरीत है । अस्तु, नैयायिक प्रामाण्य और ग्रप्रामाण्य दोनों परतः मानते हैं, जबकि सांख्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः मानते हैं । जैनदर्शन इन तीनों से भिन्न सिद्धान्त की स्थापना करता है । प्रामाण्यनिश्चय के लिए स्वतः प्रामाण्यवाद और परतः प्रामाण्यवाद दोनों की आवश्यकता है । स्वतः प्रामाण्यवाद के उदाहरण देखिए – एक व्यक्ति अपनी हथेली हमेशा देखता है । वह उससे खूब परिचित है । उस व्यक्ति के हथेली - विषयक ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करने के लिए किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है । हथेली को देखते ही वह व्यक्ति निश्चय कर लेता है कि यह मेरी ही हथेली है । दूसरा उदाहरण पानी का है । एक व्यक्ति को प्यास लगी है । वह पानी पीता है और तुरन्त प्यास बुझ जाती है । प्यास बुझते ही वह समझ लेता है कि मैंने पानी ही पिया । वह पानी था या नहीं, इसका निश्चय करने के लिए उसे दूसरी वस्तु का सहारा नहीं लेना पड़ता । कई बार ऐसे अवसर ग्राते हैं जब व्यक्ति अपने आप अपने ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय नहीं कर पाता । उसे किसी बाह्य वस्तु का सहारा लेना पड़ता है । उदाहरण के लिए एक कमरे में छोटा सा छेद है । उससे थोड़ा सा प्रकाश बाहर निकल रहा है । वह प्रकाश दीपक का है या मरिण का इसका निर्णय नहीं हो रहा है । इसके निर्णय के लिए कमरा खोला जाता है । दीपक की बत्ती दिखाई देती है । तेल का प्रत्यक्ष होता है । इन सब चीजों को देख कर यह निश्चय हो जाता है कि मेरा दीपक - विषयक ज्ञान तो सच्चा है और मरिणविषयक ज्ञान झूठा । दीपक - विषयक का निश्चय होता है और मरिण विषयक ज्ञान के अप्रामाण्य का |
ज्ञान के प्रामाण्य