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________________ ज्ञानवाद र प्रमाणशास्त्र २५५ यह कैसे हो सकता है ? निर्विकल्पक उपयोग तो दर्शनमात्र है । ज्ञान उसके बाद का उपयोग है । ऐसी स्थिति में ज्ञान निर्विकल्पक कैसे हो सकता है । प्रमाण और प्रमाण का निर्णय करने के लिए निश्चयात्मक उपयोग होना आवश्यक है । ज्ञान का प्रामाण्य : सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण होता है, यह हमने देख लिया। कौन सा ज्ञान सम्पर्क है श्रीर कौन सा मिथ्या ? इसका निर्णय करना अभी बाकी है । दूसरे शब्दों में ज्ञान को जिसके कारण प्रमारण कहा जाता है वह प्रामाण्य क्या है ? प्रामाण्य की कसौटी क्या है जिसके आधार पर हम यह निर्णय कर सकें कि अमुक ज्ञान तो प्रमाण है और अमुक ज्ञान प्रमाण । प्रामाएय र अप्रामाण्य का निर्णय कैसे हो ? जैन तार्किक कहते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय या तो स्वतः होता है या परतः ? किसी परिस्थिति में ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः निश्चित हो जाता है । किसी परिस्थिति में प्रामाण्य - निश्चय के लिए दूसरे साधनों का सहारा लेना पड़ता है। मीमांसक स्वतः प्रामाण्यवादी हैं । नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी हैं । मीमांसक कहते हैं कि ज्ञान प्रमाणरूप ही उत्पन्न होता हूँ । उसमें जो ग्रप्रामाण्य याता है वह बाह्य दोप के कारण है । ज्ञान के प्रामाण्यनिश्चय के लिए किसी अन्य वस्तु की ग्रावश्यकता नहीं । प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है और ज्ञात होता है । प्रामाण्य की उत्पत्ति र ज्ञप्ति स्वत: है । इसे स्वतः प्रामाण्यवाद कहते हैं । नैयायिक स्वतः प्रामाण्यवाद को नहीं मानते । वे कहते है कि ज्ञान प्रमाण है या प्रमाण, इसका निर्णय किसी वाह्य पदार्थ के आधार पर ही किया जा सकता है। जो ज्ञान यथार्थ अर्थात् श्रथं से अव्यभिचारी होता है वह प्रमाण है । जो ज्ञान प्रर्वाव्यभिचारी नहीं होता वह प्रमाण है । प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की कसौटी वाह्य वस्तु है । ज्ञान स्वतः न तो प्रमाण है और न अप्रमाण | प्रमाण १ - 'प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा' । - प्रमाणमीमांसा १।११८
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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