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जैन-दर्शन
सामान्य दृष्टि से प्रमाण का फल यही है कि अज्ञान नहीं रहने पाता । जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार का सर्वनाश हो जाता है उसी प्रकार प्रमाण से अज्ञान का विनाश होता है । यह साधारण फल है। इस अज्ञान-नाश का किसके लिए क्या फल है, इसे बताने के लिए कहा गया है कि जिसे केवलज्ञान होता है उसके लिए अज्ञाननाश का यही फल है कि उसे आत्म-सुख प्राप्त होता है और जगत् के पदार्थों के प्रति उसका उपेक्षाभाव रहता है। दूसरे लोगों के लिए अज्ञान-नाश का फल ग्रहण और त्यागरूप बुद्धि का उत्पन्न होना है । अमुक वस्तु निर्दोष है अतः इसका ग्रहण करना चाहिए। अमुक वस्तु सदोष है अत: इसका त्याग करना चाहिए । इस प्रकार का विवेक अज्ञान के विनाश से जाग्रत् होता है । यही विवेक सत्कार्य में प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देता है, असत्कार्य से दूर हटने का बोध कराता है। प्रमाण का यह फल ज्ञान से भिन्न नहीं है। पूर्वकालभावी ज्ञान उत्तरकालभावी ज्ञान के लिए प्रमाण है और उत्तरकालभावी ज्ञान पूर्वकालभावी ज्ञान का फल है। यह परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती जातो है। प्रमाग के भेद:
ज्ञान का विवेचन करते समय हमने यह देखा है कि जैन दर्शन मुख्यरूप से ज्ञान के दो भेद मानता है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष सीधा प्रात्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान है और परोक्ष इन्द्रियादि करणों की सहायता से पैदा होता है। जैनकिकों ने इसी आधार पर प्रमाण के भी दो भेद किए हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष' । बौद्धों ने प्रमाण के जो दो भेद किए हैं उनसे ये भिन्न हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद न करके वौद्ध ताकिकों ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो भेद किए हैं। जैनदर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का
१-'प्रमाणं द्विधा। प्रत्यक्ष परोक्षं च।'
-प्रमाणमीमांसा १११।९-१० २–'प्रत्यक्षमनुमानं च ।'
-न्यायविन्दु ११३