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ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र
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ज्ञान और दर्शन की इस चर्चा के साथ आगम-प्रतिपादित पंच ज्ञान की स्वरूप-चर्चा समाप्त होती है । ज्ञान से सम्बन्धित एक और विषय है और वह है प्रमाण । कौन सा ज्ञान प्रमाण है और कौन सा अप्रमारण ? प्रामाण्य का आधार क्या है ? प्रमाण का क्या फल है ? आदि प्रश्नों का प्रमाण-चर्चा के समय विचार किया जायगा ।
प्रागमों में प्रमारणचर्चा :
प्रमाणचर्चा केवल तर्कयुग की देन नहीं है। आगमयुग में भी प्रमारण विषयक चर्चा होती थी। आगमों में कई स्थलों पर स्वतन्त्ररूप से प्रमाण-चर्चा मिलती है । ज्ञान और प्रमाण दोनों पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन होता था, ऐसा कहने के लिए हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं।
भगवतीसूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है । गौतम महावीर से पूछते हैं-'भगवन् ! जैसे केवली अन्तिम शरीरी (जो इसी भव से मुक्त होने वाला हो ) को जानते हैं वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते है ?' महावीर उत्तर देते हैं --'गौतम ! वे अपने-आप नहीं जान सकते । या तो सुनकर जानते हैं या प्रमाण से । किससे सुनकर ? केवली से ...... ..... । किस प्रमाण से ? प्रमाण चार प्रकार के कहे गए हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और पागम । इनके विषय में जैसा अनुयोगद्वार में वर्णन है वैसा यहाँ भी समझना चाहिए।'
स्थानांग सूत्र में प्रमाण और हेतु दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है । निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के निम्न भेद किए गए हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । हेतु शब्द का जहाँ
१-~-गोयमा ! णो तिठठे समझें । सोच्चा जाणति पासति, पमाणतो
वा............... से किं तं पमाणे ? पमाणे चउविहे पण्णत्त - तं जहा पच्चववखे अशुमारणे अोवम्मे आगमे, जहा असुनोगद्दारे..
___ ~भग० ५।४।१६१-१६२ २-'चउबिहे पमाणे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, काल
प्पमारणे, भावप्पमारणे,' ३२१