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जैन-दर्शन
और ज्ञानावरण दोनों के क्षय में काल का भेद नहीं है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि पहले केवलदर्शन होता है, फिर केवलज्ञान होता है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए कोई यह माने कि दोनों का युगपद् सद्भाव है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते । इस कठिनाई को दूर करने का सबसे सरल एवं युक्तिसंगत मार्ग यही है कि केवलो अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । दर्शन
और ज्ञान को भिन्न मानने में एक कठिनाई और है । यदि केवली एक ही क्षण में सब कुछ जान लेता है तो उसे हमेशा के लिए सब कुछ जानते रहना चाहिए। यदि उसका ज्ञान हमेशा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ किस बात का ? यदि उसका ज्ञान सदैव पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही नहीं उठता। वह हमेशा एक रूप है। वहाँ दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं। 'ज्ञान सविकल्पक है और दर्शन निर्विकल्पक है' - इस प्रकार का भेद प्रावरणरूप कर्म के क्षय के बाद नहीं रहता । सविकल्पक और निर्विकल्पक का भेद वहीं होता है जहाँ उपयोग में अपूर्णता होती है । पूर्ण उपयोग में किसी तरह का भेद-भाव नहीं रहता। एक कठिनाई और है । ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है, किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता। केवली को जब एक बार सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब पुनः दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता। इसलिए ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता।
१-जइ सव्वं सायारं, जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू । जुज्जइ सया वि एवं अहवा सव्वं ण याणाइ ।
-सन्मतितर्क प्रकरण २।१० २–परिसुद्धं सायारं, अवियत्तं दंसणं अणायारं । __ण य रवीणावरणिज्जे, जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥
-वही २०११ ३-दसणपुव्वं गाणं णाराणिमित्त तु दंसणं रणत्थि । तेण सुविणिच्छियामो, दंसणणाणा अण्णत्त ॥
-वही २।२२