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जैन-दर्शन प्रयोग है वहाँ भी चार भेद मिलते हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान और प्रागम' । कहीं-कहीं पर प्रमाण के तीन भेद भी मिलते हैं । स्थानांगसूत्र में व्यवसाय को तीन प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक और आनुगामिक' । व्यवसाय का अर्थ होता है निश्चय । निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण है।
प्रमाण के कितने भेद होते हैं, इस विषय में अनेक परम्पराएँ प्रचलित रहीं हैं। आगमों में जो विवरण मिलता है वह तीन और चार भेदों का निर्देश करता है। सांख्य प्रमाण के तीन भेद मानते आए हैं। नैयायिकों ने चार भेद माने हैं। ये दोनों परम्पराएं स्थानांगसूत्र में मिलती हैं। अनुयोगद्वार में प्रमाण के भेदों का किस प्रकार वर्णन है ? संक्षेप में देखने का प्रयत्न किया जाएगा। प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय
प्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष के पाँच भेद हैं-श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष जिव्हेन्द्रियप्रत्यक्ष और स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष ।
नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं-अवधिप्रत्यक्ष, मनःपर्ययप्रत्यक्ष और केवलप्रत्यक्ष । ___ मानसप्रत्यक्ष को अलग नहीं गिनाया गया है। सम्भवतः उसका पाँचों इन्द्रियों में समावेश कर लिया गया है। आगे के दार्शनिकों ने इसे स्वतन्त्र स्थान दिया है। १–ग्रहवा हेऊ चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा पच्चक्खे, अणुमाणे, प्रोवम्मे,
आगमे, ३३८ २-'तिविहे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा पच्चक्खे, पच्चइए, अरशुगामिए'
'व्यवसायो निश्चयः स च प्रत्यक्ष अवधिमनःपर्ययकेवलाख्यः, प्रत्ययात् इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणात् निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः साध्यमग्न्यादिकमनुगच्छतिसाध्याभावे न भवति योधूमादिहेतु: सोऽनुगामी ततो जातम् प्रागुमिकम्अनुमानम्, तद्योव्यवमाय-ग्रानुगामिक एवेति । अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षणः प्रात्ययिक प्राप्तवचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति' ।
-~-अभयदेवकृत व्याख्या