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जैन-दर्शन
वर्धमान है। यह वृद्धि क्षेत्र, शुद्धि आदि किसी भी दृष्टि से हो सकती है।
जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय से परिणामों की विशुद्धि कम हो जाने के कारण क्रमशः अल्प-विषयक होता जाता है वह हीयमान है।
जो न तो बढ़ता है और न कम होता है, अपितु जैसा उत्पन्न होता है वैसा-का वैसा बना रहता है। जन्मातर के समय अथवा केवलज्ञान होने पर नष्ट होता है, वह अवस्थित है।
जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी प्रकट होता है, कभी तिरोहित हो जाता है उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं।
अवधिज्ञान के उपयुक्त छ: भेद स्वामी के गुण की दृष्टि से हैं। इनके अतिरिक्त क्षेत्र आदि की दृष्टि से तीन भेद और होते हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि' । देशावधि के पुन: तीन भेद होते हैं-जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट । सर्वावधि एक ही प्रकार का होता है।
जघन्य देशावधि का क्षेत्र उत्सेधांगुले' का असंख्यातवाँ भाग है । उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । अजघन्योत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र इन दोनों के बीच का है, जो असंख्यात प्रकार का है ।
जघन्य परमावधि का क्षेत्र एक प्रदेशाधिक लोक है । उत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र असंख्यातलोक प्रमाण है । अजघन्योत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र इन दोनों के बीच का है।
सर्वावधि का क्षेत्र उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात क्षेत्र प्रमाण है।
१ - 'पुनरपरेऽवघेस्त्रयो भेदा देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति' ।
-वही १।२२।५ (वृत्तिसहित) २- अंगुल एक प्रकार का क्षेत्र का नाप है । यह तीन प्रकार का है
उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । भिन्न भिन्न पदार्थों के नाप ' के लिए भिन्न भिन्न अंगुल निश्चित हैं ।