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ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र
२३३ के लिये ऐसा नियम नहीं है । मति और श्र तज्ञान तो जन्म के साथ ही होते हैं. किन्तु अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है । व्यक्ति के प्रयत्न से कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है । देव और नारक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्म सिद्ध नहीं है, अपितु व्रत, नियम आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए इसे गुणप्रत्यय अथवा क्षायोपशमिक कहते हैं । यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि जब यह नियम है कि अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही अवधिज्ञान प्रकट होता है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि देव और नारक जन्म से ही अवधिज्ञानी होते हैं ? उनके लिए भी क्षयोपशम आवश्यक है। उनमें और दूसरों में अन्तर इतना ही है कि उनका क्षयोपशम भवजन्य होता है अर्थात् उस जाति में जन्म लेने पर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो ही जाता है। वह जाति ही ऐसी है कि जिसके कारण यह कार्य बिना विशेष प्रयत्न के पूरा हो जाता है । मनुष्यादि अन्य जातियों के लिए यह नियम नहीं। वहाँ तो व्रत, नियमादि का विशेषरूप से पालन करना पड़ता है । तभी अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है । क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है। अन्तर साधन में है । जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते हैं उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है । जिन्हें इसके लिये विशेष प्रयत्न करना पड़ता है उनका अवधिज्ञान गुणप्रत्यय है ।
गुणप्रत्यय अवधि के छः भेद होते हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित' ।। __ जो अवधिज्ञान एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी नष्ट न हो, अपितु साथ-साथ जावे, वह अनुगामी है।
उत्पत्तिस्थान का त्याग कर देने पर जो नष्ट हो जाय वह अननुगामी है।
जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय से क्रमशः बढ़ता जाय वह
१-'अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात् षड्विधः'
-तत्त्वार्थराजवातिक १२२।४