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ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र
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लोक से अधिक क्षेत्र नहीं हो सकता, क्योंकि लोक के बाहर कोई पदार्थ नहीं जिसे अवधिज्ञानी जान सके । इसलिए जहाँ लोक से अधिक क्षेत्र का निर्देश है वहाँ उत्तरोत्तर उतने ही प्रमाण में ज्ञान की सूक्ष्मता समझना चाहिए। जिस तरह क्षेत्र की दृष्टि से विभिन्न प्रकार हैं उसी प्रकार काल की दृष्टि में भी अनेक भेद हो सकते हैं । उन सव का वर्णन करना यहाँ अभीष्ट नहीं।। ____ अावश्यकनियुक्ति में क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, तीव्र, मन्द आदि चौदह दृष्टियों से अवधिज्ञान का लम्बा वर्णन है। विशेषावश्यक भाष्य में सात प्रकार के निक्षेप से अवधिज्ञान को समझने की सूचना है । ये सात निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । मनःपर्ययज्ञान :
'मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मनःपर्ययज्ञान है । यह मनुष्य क्षेत्र तक सीमित है, गुण के कारण उत्पन्न होता है और चारित्रवान् व्यक्ति ही इसका अधिकारी है। यह मनःपर्ययज्ञान की व्याख्या आवश्यकनियुक्तिकार ने की है । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है । उसका मन तद्तद् पर्यायों में परिणत होता है। मनः पर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है । उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति इस समय यह बात सोच रहा है। अनुमान-कल्पना से किसी के विषय में यह सोचना कि 'अमुक व्यक्ति अमुक विचार कर रहा है' मनःपर्ययज्ञान नहीं है । मन के परिणमन का आत्मा से साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना मनःपर्ययज्ञान है । यह ज्ञान
१-२६-२८ २-मरणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्यपागडणं । माणुसखेत्तनिवद्धगुणपच्चइयं चरित्तवयो।
-आवश्यकनियुक्ति, ७६