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जैन-दर्शन
का शब्द है या पुरुष का' यह विकल्प बिना अन्तर्जल्प के नहीं हो सकता। यह अन्तर्जल्प शब्द-संसर्ग है । शब्द-संसर्ग होते हुए जहाँ श्रुतानुसारित्व हो वह ज्ञान श्रु त है । श्रु तानुसारी का अर्थ है-शब्द व शास्त्र के अर्थ की परम्परा का अनुसरण करने वाला। अवधिज्ञान :
आत्मा का स्वाभाविक गुण केवलज्ञान है । कर्म के आवरण की तरतमता के कारण यह ज्ञान विविध रूपों में प्रकट होता है । मति और श्रु त इन्द्रिय तथा मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं, अतः वे आत्मा की दृष्टि से परोक्ष हैं । अवधि, मनःपर्यय और केवल सीधे आत्मा से होते हैं, अतः उन्हें प्रत्यक्ष कहा गया है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है और अवधि और मनःपर्यय विकलप्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान प्रात्मा से पैदा होते हैं इसलिए प्रत्यक्ष हैं किन्तु अपूर्ण हैं, अतः विकल हैं । अवधि का अर्थ है 'सीमा' अथवा 'वह जो सीमित है' । अवधिज्ञान की क्या सीमा है ? अवधि का विषय केवल रूपी पदार्थ है। जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्शयुक्त है वही अवधि का विषय है। इससे आगे अरूपी पदार्थों में अवधि की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो छ: द्रव्यों में से केवल एक द्रव्य अवधि का विषय हो सकता है । वह द्रव्य है पुद्गल, क्योंकि केवल पुद्गल ही रूपी है । अन्य पाँच द्रव्य उसके विषय नहीं हो सकते।
अवधिज्ञान के अधिकारी दो प्रकार के होते हैं-भवप्रत्ययी और गृगाप्रत्ययी। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है। गुग्ग-प्रत्यय का अधिकारी मनुष्य या तिर्यञ्च होता है । भवप्रत्यय का अर्थ है जन्म से प्राप्त होने वाला । जो अवधिज्ञान जन्म के साथ ही-साथ प्रकट होता है- वह भवप्रत्यय है । देव और नारक को पैदा होते ही अवधिनान प्राप्त होता है । इसके लिए उन्हें व्रत, नियमादि का पालन नहीं करना पड़ता। उनका भव ही ऐसा है कि वहाँ पैदा होते ही अवधिज्ञान हो जाता है। मनुष्य और अन्य प्राणियों
-- कापियवधेः ।'
-तत्त्वार्थसूत्र १, २८ २ स्यानांगनूय ७१ नंदी मूत्र ७-८, तत्त्वार्थमूत्र १, २२-२३