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शानवाद र प्रमाणशास्त्र
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के लिये ऐसा नियम नहीं है । मनि और श्रुतज्ञान तो जन्म के साथ ही होने है कि अवधिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं है । व्यक्ति के प्रयत्न से कमों का क्षयोपम होने पर ही यह ज्ञान पैदा होता है । देव और नाक की तरह मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्म नही पित छन, नियम आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जा सकता है | इसीलिए इसे गुगात्यय अथवा क्षायोपशमिक का है। यह एक प्रश्न उठ सकता है कि जब यह नियम है कि के से ही अवधिज्ञान प्रकट होता है त यह कैसे कहा जा सकता है कि देव श्रीर नारक जन्म से ही ग्रवधिशानी होने है ? उनके लिए भी यपथम ग्रावश्यक है । उनमें और दूसरी में धार इतना ही है कि उनका क्षयोपशम भवजन्य होता
अर्थात उस जानि में जन्म लेने पर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपनम हो ही जाता है। कह जाति ही ऐसी है कि जिसके कारण यह कार्य दिनविशेष प्रयत्न के पूरा हो जाता है | मनुष्यादि अन्य जातियों के लिए यह नियम नहीं | वहां तो व्रत, नियमादि का विशेषरूप से पालन करना पड़ता है | सभी अवधिज्ञानावरण का क्षयोपगम होता है। तभी के लिए आवश्यक है | अन्तर साधन में है। जो जीव वन जन्म मात्र से क्षयोपण कर सकते है उनका है। इसके लिये विशेष प्रयत्न करना पड़ता उक्का भिज्ञान गुण
विज्ञान
है |
अवधि के भेद होते है-अनुगामी, घननुगामी, वर्धमान, विमान, अति और अनवति' 1
जो पनि एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर ब आने पर भी नष्ट न हो. घपितु मामनाथ जावे. यह अनुगामी है । उत्पलम्यान नायागमार देने पर जो नष्ट हो जाय वह
धनगारी है।
से पनि उनके समय में माना जाय वह
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