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না ২ ঘন্নাৰ
२३१ मग ये दो शान रहते हैं । इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि जहां गनिभान है वहां श्रननान भी है और जहाँ ध तज्ञान है वहाँ मतिभान भी है । ये दोनों जान जीव में किसी-न-किसी मात्रा में हर नमय पहने है। यत्तिरप से इनकी सत्ता सदैव रहती है। जीव की दृष्टि में यह महचारित्व है, न कि किसी विशेष जान की दृष्टि में।
जिनभद्र कहते है कि जो ज्ञान तानुसारी है, इन्द्रिय और मन में पैदा होता है, तथा नियत अर्थ को समझाने में समर्थ है, का भावथन है । दोप मति है। केवल गव्दनान धुत नहीं है । जिन पत्यज्ञान के पीछे श्रुतानुसारी संकेतस्मरण है और जो नियन अधं को समभाने में समर्थ है वही शब्दज्ञान श्रत है। इसके प्रनिनि जितना भी शब्दज्ञान है, नव मति है । सामान्य गन्दनान, जो किचल मतिज्ञान है, बढ़ते-बढ़ते उपयुक्त स्तर तक पहुँचता है नभी वह थ नजान बनता है। गन्दनान होने से कोई भी शब्दनान घन नहीं जाता । श्रत के लिए जो गर्ने हैं उन्हें पूरी करने पर
यसान न बनना है । श्र तनान के प्रति कारण होने से गब्द कोयनन महा जाता है। वास्तव में भावधतही श्रत है।
का गात्मनापेक्ष. नाथ नानुमारित्व, इन्द्रिय और मनोजन्य व्यापानियन अयं को नमनाने का सामर्थ्य-ये सब बातें होना गरानी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया शिवराया योनागा यही ज्ञान ध्रुत है जो श्रुतानुमारी है। जो मान ' मानलागनीका गति है। कवल गब्द-संमग ही जान ना जाता । अन्यथा हा, अवाय यादि भी नही होने
नागदग उत्पम नहीं होते । मन में यह स्त्री
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मित, दिमाला गारंगा । मारना ॥
-~~-दिपावामान, १०० मा गुमारिपि