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जैन दर्शन
चुके हैं । श्रुत वास्तव में ज्ञानात्मक है, किन्तु उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं, क्योंकि वे ज्ञानोत्पत्ति के साधन हैं । श्रुतज्ञान के भेद मोटे तौर पर समझने के लिये हैं ।
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आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं । इसलिए उसके सारे भेद गिनाना सम्भव नहीं । श्रुतज्ञान के चौदह मुख्य प्रकार हैंअक्षर, संज्ञी, सम्यक, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य ये सात इनसे विपरीत' । नन्दीसूत्र में इन भेदों का स्वरूप बताया गया है । ग्रक्षर श्रुत के तीन भेद किये गए हैं— संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लव्ध्यक्षर । वर्ण का प्राकार संज्ञाक्षर है । वर्ण की ध्वनि व्यंजनाक्षर है । जो वर्ण सीखने में समर्थ है वह लव्ध्यक्षरधारी है । संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत है । लब्ध्यक्षर भावश्रुत है। खांसना, ऊँचा श्वास लेना आदि अनक्षरश्रुत है । संज्ञी श्रुत के भी तीन भेद हैं— दीर्घकालिकी, हेतुपदेशिकी, और दृष्टिवादोपदेशिकी | वर्तमान, भूत और भविष्य त्रिकालविषयक विचार दीर्घकालिकी संज्ञा है । : केवल वर्तमान की दृष्टि से हिताहित का विचार करना हेतूपदेशिकी संज्ञा है । सम्यक् श्रुत के ज्ञान के कारण हिताहित का बोध होना दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है । जो इन संज्ञाओं को धारण करते हैं वे संज्ञी कहलाते हैं । जो इन संज्ञाओं को धारण नहीं करते वे प्रसंज्ञी हैं । श्रसंज्ञी तीन तरह के होते हैं । जो समनस्क होते हुए भी सोच नहीं सकते वे प्रथम कोटि के प्रसंज्ञी हैं । जो अमनस्क हैं वे दूसरी कोटि के प्रसंज्ञी हैं । ग्रमनस्क का अर्थ मन रहित नहीं है, अपितु अत्यन्त सूक्ष्म मन वाला है । जो मिथ्याश्रुत में विश्वास रखते हैं वे तीसरी कोटि के असंज्ञी हैं । सादिक श्रुत वह है जिसकी
- आवश्य नियुक्ति १७-१६
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२ - नंदीसूत्र ३८
३ - वही ३६-४०