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जैन-दर्शन
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मात्र का ज्ञान अवग्रह है ।" इस ज्ञान में यह निश्चित प्रतीति नहीं होती कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ है । केवल इतना मालूम होता है कि यह कुछ है । इन्द्रिय और अर्थ का जो सामान्य सम्बन्ध है वह दर्शन है। दर्शन के बाद पैदा होने वाला सामान्य ज्ञान अवग्रह है । इसमें केवल सत्ता का ही ज्ञान नहीं होता, श्रपितु पदार्थ का प्रारंभिक ज्ञान हो जाता है कि कुछ है । अवग्रह दो प्रकार का होता हैव्यंजनावग्रह और प्रर्थावग्रह | अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह है । ऊपर जो अवग्रह की व्याख्या की गई है वह वास्तव में अर्थावग्रह है । इस व्याख्या के अनुसार व्यंजनावग्रह दर्शन की कोटि में आता है और अवग्रह का अर्थ अर्थावग्रह ही होता है । व्यंजनावग्रह को ज्ञान मानने वालों के लिए दर्शन इन्द्रिय और अर्थ के संयोग या सम्बन्ध से भी पहले होता है । यह एक प्रतिभास मात्र है, जो सत्ता मात्र का ग्रहण करता है । उसके बाद अर्थ और इन्द्रिय का संयोग होता है, जिसे व्यंजनावग्रह कहते हैं । इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के सम्बन्ध से पहले दर्शन कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यही हो सकता है कि उनका सम्बन्ध अवश्य होता है, किन्तु वह सम्बन्ध व्यंजनावग्रह से भी पहले होता है । व्यंजनावग्रह रूप जो सम्बन्ध है वह ज्ञानकोटि में आता है और उससे भी पूर्व जो एक सत्ता सामान्य का सम्बन्ध है - सत्ता सामान्य का भान है वह दर्शन है । इसके अतिरिक्त और क्या समाधान हो सकता है, यह हम नहीं जानते ।
अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो इन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होता है, और क्रमशः पुष्ट होता जाता है, व्यंजनावग्रह कहलाता है । यह ज्ञान अव्यक्तज्ञान है । यह ज्ञान क्रमश: किस प्रकार पुष्ट होता है और अर्थावग्रह की कोटि में आता
१ - 'अक्षार्थ योगे दर्शनानन्तरमर्थ ग्रहणमवग्रहः '
२ - 'अर्थस्य ।'
व्यं जनस्यावग्रहः ।
- तत्त्वार्थ सूत्र । १।१७-१८
- प्रमाणमीमांसा १।१।२६