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ज्ञानवाद और प्रमाणगास्त्र यह सिद्ध होता है कि ग्रालोक के होने पर ही रूपनान की उत्पत्ति होती है । साधारगा मनुष्यों का रूपज्ञान इसी श्रेणी का है । तात्पर्य यह है कि ऐसा एकांत नियम नहीं है कि पालोक के होने पर ही
पज्ञान उत्पन्न हो। कहीं पर आलोक के होने पर ही रूपज्ञान होता है, कहीं पर अन्धकार के होने पर ही रूपज्ञान होता है, और कहीं पर पालोक और अंधकार दोनों प्रकार की अवस्थानों में रूपज्ञान होता है । इसलिए यह कथन उचित नहीं कि पालोक जानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण है। अर्थ के विपय में भी यही वात कही जा सकती है। मरीचिकाजान विना ही अर्थ के उत्पन्न होता है । स्वप्नज्ञान के समय हमारे सामने कोई पदार्थ नहीं रहता। इन ज्ञानों को मिथ्या कह कर नहीं टाला जा सकता, क्योंकि मिथ्या होते हा भी ज्ञान तो हैं ही । यहाँ प्रश्न सत्य और मिथ्या का नहीं है। प्रश्न है अर्थ के अभाव में ज्ञानोत्पत्ति का । ज्ञान कैसा भी हो, किंतु यदि अर्थ के अभाव में उत्पन्न हो जाता है तो यह प्रतिज्ञा गमाप्त हो जाती है कि अर्थ के होने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है। म्वप्नादिनानों को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें, तो भी यह सिद्धांत ठीक नहीं उतरता, क्योंकि भूत और भविष्य के प्रत्यक्ष की सिद्धि इस अाधार पर नहीं की जा सकती। योगियों के ज्ञान का विषय भी यदि वर्तमान पदार्थ ही माना जाय तो त्रिकाल-विषयक ज्ञान की बात व्यर्थ हो जाती है । अतः अर्थ भी ज्ञानोत्पत्ति के प्रति अनिवार्य कारण नहीं है । अवग्रह : __ अवग्रह को बताने वाले कई शब्द हैं। नंदीसूत्र में अवग्रह के लिए अवग्रहगाता. उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा का प्रयोग हुग्रा है' । तत्त्वार्थभाप्य में निम्न शब्द पाते हैं-अवग्रह, पह, ग्रहगा, पालोचन और अवधारण। इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य