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ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र
है, यह समझने के लिए एक उदाहरण देना ठीक होगा | कुम्भकार ने अपने ग्रवाप ( अवाड़ा ) में से एक ताजा शराव ( सकोरा ) निकाला, निकाल कर उसमें एक-एक बूंद पानी डालता गया । प्रथम विन्दु डालते ही सूख गया। दूसरा विन्दु भी सूख गया । तीसरा, चौथा और इस तरह अनेक विन्दु सूखते गए। अंततोगत्वा एक समय ऐसा याता है जब वह शराव पानी को सुखाने में असमता दिखाने लगता है। धीरे-धीरे वह पानी से भर जाता है । प्रथम बिन्दु से लगा कर अन्तिम विन्दु तक का सारा पानी शराव में होता है, किन्तु पहले कुछ विन्दुयों की इतनी कम शक्ति होती है कि वे स्पष्टरूप से दिखाई नहीं देते । ज्यों-ज्यों पानी की शक्ति बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उसकी अभिव्यक्ति भी स्पष्ट होती जाती है । इसी तरह जब किसी सोये हुए व्यक्ति को पुकारा जाता है तब पहले के कुछ शब्द कान में जाकर चुपचाप बैठ जाते हैं । उनकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती । दो चार बार पुकारने पर उसके कान में काफी शब्द एकत्र हो जाते हैं । तभी उसे यह ज्ञान होता है कि मुझे कोई बुला रहा है । यह ज्ञान पहले शब्द के समय इतना ग्रस्पष्ट और ग्रव्यक्त होता है कि उसे इस बात का पता नहीं लगता कि कोई बुला रहा है । जब शब्दों का जलविन्दुयों की तरह काफी मात्रा में संग्रह हो जाता है तब उसे यह ज्ञान होता है कि मुझे कोई पुकार रहा है । प्रथम कोटि का व्यक्त ज्ञान ग्रर्थावग्रह है । व्यजनावग्रह और ग्रर्थावग्रह में श्रव्यक्तता और व्यक्तता का भेद है । सामान्यात्मक ज्ञान अवग्रह है । इसी ज्ञान के विकास क्रम के दो रूप हैं । प्रथम रूप अव्यक्त ज्ञानात्मक है । यही व्यंजनावग्रह है । द्वितीय रूप व्यक्तज्ञानात्मक है । यही अर्थावग्रह हैं ।
क्या व्यंजनावग्रह सभी इंद्रियों से होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि वक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता' | नक्षु और मन से व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता ? क्योंकि ये दोनों प्राप्यकारी है | व्यंजनावग्रह के लिए अर्थ और इंद्रियों का संयोग
१- न चक्षुरनिन्द्रियान्यान्' |
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-- तत्त्वार्थसूत्र १०१६