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जैन-दर्शन
आहारक से तैजस सूक्ष्म है और तैजस से कार्मण सूक्ष्म है । तैजस और कार्मण शरीर का किसी से भी प्रतिघात नहीं होता। वे लोकाकाश में अपनी शक्ति के अनुसार कहीं भी जा सकते हैं । उनके लिए किसी भी प्रकार का बाह्य बन्धन नहीं है। ये दोनों शरीर संसारी यात्मा से अनादिकाल से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक जीव के साथ-कम से कम ये दो शरीर तो रहते ही हैं। जन्मान्तर के समय ये दो शरीर ही होते हैं। अधिक से अधिक एक साथ चार शरीर हो सकते हैं। जव जीव के तीन शरीर होते हैं तो तैजस, कार्मण और औदारिक या तेजस, कार्मण और वैक्रिय, जब चार होते हैं तो तैजस, कार्मरण
औदारिक और वैक्रिय या तेजस, कार्मण, औदारिक और आहारक समझना चाहिए। पाँच शरीर एक साथ नहीं होते, क्योंकि वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ नहीं हो सकता। वैक्रिय लब्धि के प्रयोग के समय नियमतः प्रमत दशा होती है, किन्तु याहारक के विषय में यह बात नहीं है । आहारक लब्धि का प्रयोग तो प्रमत दशा में होता है, किन्तु अाहारक शरीर बना लेने के बाद शुद्ध अध्यवसाय होने के कारण अप्रमत्तावस्था रहती है । अतः एक साथ इन दो शरीरों का रहना सम्भव नहीं । शक्ति रूप से एक साथ पाँचों शरीर रह सकते हैं, क्योंकि पाहारक-लब्धि और वैक्रिय का साथ रहना सम्भव है, किन्तु उनका प्रयोग एक साथ नहीं हो सकता; अतः पाँचों शरीर अभिव्यक्ति रूप से एक साथ नहीं रह सकते । इस चर्चा के साथ शरीर चर्चा समाप्त होती है और साथ-ही-साथ पुद्गल चर्चा भी पूरी होती है। धर्म :
जीव और पुद्गल गति करते हैं। इस गति के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता है। यह माध्यम धर्म द्रव्य है । चू कि यह अस्तिकाय है, इसलिए इसे धर्मास्तिकाय भी कहते हैं । कोई यह
? - तत्त्वार्थसूत्र २१३८ २-वही २१८१-४४ ६.-तत्त्वार्यत्रभाप्यवृत्ति-२१४४