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जन-दर्शन में तत्त्व
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गंका कर सकता है कि गति करने के लिए किसी माध्यम की क्या आवश्यकता है ? क्या जीव और पुद्गल स्वयं गति नहीं कर सकते ? इसका समाधान यह है कि गति तो जीव और पुद्गल ही करते हैं, किन्तु उनकी गति में जो सहायक कारण है-माध्यम है वह धर्म है। यदि विना धर्म के भी गति हो सकती तो मुक्तजीव अलोकाकाश में भी पहुँच जाता । अलोकाकाश में आकाश के सिवाय कोई द्रव्य नहीं है । मुक्तजीव स्वभाव से ही ऊर्ध्व गतिवाला होता है । ऐसा होते हुए भी वह लोक के अन्त तक जाकर रुक जाता है; क्योंकि अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय नहीं है । धर्मास्तिकाय के अभाव में गति नहीं हो सकती, इसीलिए ऐसा होता है ।
धर्म का लक्षण बताते हुए राजवातिककार कहते हैं कि स्वयं क्रिया करने वाले जीव और पुद्गल को जो सहायता करता है वह धर्म है । यह नित्य है, अवस्थित है और अरूपी है' । नित्य का अर्थ है तद्भावाव्यय । गति (क्रिया) में सहायता देने रूप भाव से कभी च्युत नहीं होना ही धर्म का तद्भावाव्यय है । अवस्थित का अर्थ है जितने प्रदेश हैं उतने ही प्रदेशों का हमेशा रहना । धर्म के असंख्यात प्रदेश हैं । वे प्रदेश हमेशा असंख्यात ही रहते हैं। अरूपी का अर्थ पहले बताया जा चुका है । स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णरहित द्रव्य अरूपी हैं । धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है। जीवादि की तरह धर्म भिन्न-भिन्न रूप से नहीं रहता, अपितु एक अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है । यह सारे लोक में व्याप्त है । लोक का ऐसा कोई भी भाग नहीं है, जहाँ धर्मद्रव्य न हो । जव यह सर्वलोक व्यापी है तब यह स्वतः सिद्ध है कि उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। ___ गति का अर्थ है एक देश से दूसरे देश में जाने की क्रिया । इसलिये क्रिया को गति भी कह सकते हैं। धर्म इस प्रकार की
१--'तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात्'-तत्त्वार्थ सूत्र १०५ २-तत्त्वाचं मूत्र ११, १६ ३..--तत्वाधमुत्र ५।४