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जैन दर्शन में तत्त्व
केवल गर्भ नहीं है, अपितु सारा शरीर है । रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण हैं |
वैक्रिय शरीर :
देवगति और नरकगति में उत्पन्न होने वाले जीवों के वैक्रिय शरीर होता है । इन जीवों के अतिरिक्त लब्धिप्राप्त मनुष्य और तिर्यच भी इस शरीर को प्राप्त कर सकते हैं । यह शरीर साधारण इन्द्रियों का विषय नहीं होता । भिन्न भिन्न आकारों में परिवर्तित होना इस शरीर की विशेषता है । इसमें रक्त, मांस आदि का सर्वथा प्रभाव होता है । श्राहारक शरीर :
सूक्ष्म पदार्थ के ज्ञान के लिए अथवा किसी शंका के समाधान के लिए प्रमत्त संयत ( मुनि ) एक विशिष्ट शरीर का निर्माण करता है । यह शरीर बहुत दूर तक जाता है और शंका-समाधान के साथ पुनः अपने स्थान पर या जाता है । इसे ग्राहारक शरीर कहते हैं । तेजस शरीर :
यह एक प्रकार के विशिष्ट पुद्गल परमाणुत्रों ( तेजोवर्गणा ) से बनता है । जठराग्नि की शक्ति इसी शरीर की शक्ति है । यह प्रौदारिक शरीर और कार्मरण शरीर के बीच की एक ग्रावश्यक कड़ी है । कार्मरण शरीर :
ग्रान्तरिक सूक्ष्म शरीर जो कि मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार की प्रवृत्तियों का मूल है, कार्मरण शरीर है । यह ग्राठ प्रकार के कर्मों से बनता है ।
उपर्युक्त पाँच प्रकारों में से हम अपनी इन्द्रियों से केवल चौदारिक शरीर का ज्ञान कर सकते हैं । शेप शरीर इतने सूक्ष्म हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ग्रहण नहीं कर सकतीं । कोई वीतराग केवली ही उनका प्रत्यक्ष कर सकता है। इनकी सूक्ष्मता का क्रम इस प्रकार है— प्रदारिक से वैक्रिय सूक्ष्म है, वैक्रिय से ग्राहारक सूक्ष्म है,
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