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प्रस्तुत ग्रंथ का प्रथम अध्याय धर्म, दर्शन और विज्ञान की के रूप तुलना में है । इससे दर्शन के क्षेत्र का और उसकी पद्धति का ज्ञान होने में सहायता मिलेगी। दूसरा अध्याय आदर्शवाद और यथार्थवाद के दार्शनिक दृष्टिकोणों को समझने के लिए है। जैनदर्शन का क्या दृष्टिकोण है व दूसरे दृष्टिकोणों से उसमें क्या विशेषता है, यह जानने की दृष्टि से इसे आवश्यक समझा गया है । पाश्चात्य और प्राच्य विचारधाराओं की सामान्य भूमिका क्या है, यह भी इससे ज्ञात होगा। तीसरा अध्याय जैनदर्शन के सामान्य स्वरूप व उसके आधारभूत साहित्य पर है । इसमें आगम से लेकर आजतक के साहित्य का परिचय दिया गया है । जैन दर्शन के विकास को समझने के लिए यह जानना श्रावश्यक है | चौथा अध्याय तत्त्व पर है । तत्त्व के स्वरूप, भेद आदि का संक्षिप्त विवेचन किया गया है । पाँचवाँ अध्याय ज्ञानवाद और प्रमाणशास्त्र पर है । इसमें आगमिक मान्यता और तार्किक मान्यता- दोनों का विचार किया गया है । छठा अध्याय स्याद्वाद पर है । श्रागमों में स्याद्वाद किस रूप में मिलता है, भगवती प्रादि में सप्तभङ्गी किस रूप में है, सप्तभङ्गी आगमकालीन है या बाद के दार्शनिकों के दिमाग की उपज, आदि प्रश्नों को हल करने का प्रयत्न किया गया है और साथ ही स्याद्वाद पर किये जाने वाले प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रहारों का सप्रमाण उत्तर दिया गया है । सातवाँ अध्याय नय पर है । इसमें द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि का विवेचन करते हुए सात नयों का स्वरूप बताया गया है । आठवें अध्याय में कर्मवाद पर प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार इस ग्रंथ में जैन-दर्शन की मौलिक समस्याओं पर प्रकाश डालने की पूरी कोशिश की गई है । प्रायः मुख्य मुख्य सारी बातें इसमें आ गई हैं । कोई भी ऐसा महत्त्व का विषय नहीं है जिस पर इसमें प्रकाश न डाला गया हो। ऐसी बातें अवश्य छोड़ दी गई हैं जो केवल मान्यता की हैं, जिनका दर्शनिक दृष्टि से खास महत्त्व नहीं है । हिन्दी जगत् में इस प्रकार के ग्रन्थों की कमी है। प्रस्तुत ग्रंथ इस कमी को किसी अंश तक दूर करने का नम्र प्रयास है । पृष्ठों के नीचे स्थल-निर्देश व उद्धरण दिए गये हैं जिससे कोई भी बात निर्मूल मालूम न हो । 'नामूलं लिख्यते किंचित्' का यथा संभव पालन किया गया है ।
ग्रंथ की पाण्डुलिपि सात वर्ष पूर्व ही तैयार हो चुकी थी किन्तु किन्हीं कारणों से ग्रंथ प्रकाशित न हो सका । आज इसे इस रूप में हमारे सन्मुख