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आदि द्रव्यों के भिन्न-भिन्न परमाणुः मानते हैं जब. कि जैनदर्शन: पुद्गल के अलग-अलग प्रकार के परमाणु नहीं मानता। प्रत्येक परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध और रूप को योग्यता रहती है । स्पर्श के.परमाणु रूपादि के परमाणुओं से भिन्न नहीं हैं । इसी प्रकार रूप के परमाणु स्पादि परमाणुओं से अलग नहीं हैं । परमारणु की एक ही जाति है । पृथ्वी का परमाणु पानी में परिणत हो सकता है, पानी का परमाणु अग्नि में परिणत हो सकता है आदि । इसके अतिरिक्त शब्द को पौद्गलिक मानना भी जैनदर्शन की विशेषता है। तत्त्वविषयक विशेषताओं के ज्ञान के लिए यह विवरण काफी है।
ज्ञानवाद की मान्यता में सब से बड़ी विशेषता यह है कि जैनेतर दर्शन इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं जब कि जनदर्शन वास्तव में आत्मा से होने वाले ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानता है अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से न होकर सीधा प्रात्मा से होता है वही ज्ञान प्रत्यक्ष है । इन्द्रियज्ञान को व्यावहारिक प्रत्यक्ष कह सकते हैं । पारमार्थिक अथवा निश्चय-दृष्टि से इन्द्रियज्ञान परोक्ष ही है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखते हैं अतः परोक्ष हैं । अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं रखते, किन्तु प्रात्मा से उत्पन्न होते हैं अतः प्रत्यक्ष हैं ।
प्रामाण्य की समस्या का उत्पत्ति और ज्ञप्ति की दृष्टि से जो समाधान जैन ताकिकों ने किया है वह भी दूसरों से भिन्न है । जैनदर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः मानी गई है जब कि ज्ञप्ति स्वतः और परत: दोनों प्रकार से मानी गई है । अभ्यास-दशा में बप्ति स्वतः होती है, अनम्यास दशा में परतः । प्रमाण और फल के सम्बन्ध में भी जैन दृष्टिकोण भिन्न है । प्रमाण फल से कथंचित् भिन्न है कथंचित् अभिन्न ।
स्थाद्वाद प्रौर नय को जैन दर्शन की देन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा विशिष्ट है, हम पहले ही कह चुके हैं । नय का आविष्कार करके जनताकिकों ने सम्यक् एकान की सिद्धि करने का सफल प्रयत्न किया है। अपनी दृष्टि तक सीमित रहते हुए भी दूसरों की दृष्टि पर प्रहार न करना, यही नय का सन्देश है ।
कामंवाद पर जनदर्शन के प्राचार्यों ने जितना विशाल साहित्य तयार किया है उतना किमी दूसरे दर्शन के पाचार्यों ने नहीं किया । कर्म-सिद्धान्त का इतना व्यवपित एवं सर्वागपूर्ण विवेचन अन्य दर्शनों में नहीं मिलता।