________________
( च . ) में हमारे सामने है । इसके अतिरिक्त जैनदर्शन की और भी कई विशेषताएं हैं। उनका हम क्रमशः उल्लेख करेंगे ।
सर्व प्रथम हम तत्त्व को लें। तत्त्व के सामान्य रूप से चार पक्ष होते हैं । एक पक्ष तत्त्व को सत् मानता है । सांख्य इस पक्ष का प्रवल समर्थक है । दूसरा पक्ष असत्वादी है। उसकी दृष्टि से तत्त्व सत् नहीं हो सकता । बौद्ध दर्शन की शाखा शून्यवाद को इस पक्ष का समर्थक कह सकते हैं । यद्यपि शून्यवाद की दृष्टि से तत्त्व न सत् है, न असत् हैं, न उभय है. न अनुभय है, तथापि उसका झुकाव निषेध की ओर ही है अतः वह असत्वादी कहा जा सकता है । तीसरा पक्ष सत् और असत् --दोनों का स्वतंत्र रूप से समर्थन करता है। यह पक्ष न्याय-वैशेषिक का है। इसकी दृष्टि से सत् भिन्न है, असत् भिन्न है । ये दोनों स्वतन्त्र तत्त्व हैं । सत् असत् से सर्वथा भिन्न तथा स्वतन्त्र पदार्थ है। उसी प्रकार असत् भी एक भिन्न पदार्थ है । चौथा पक्ष अनुभयवाद का है। इस पक्ष का कथन है कि तत्त्व अनिर्वचनीय है । वह न सत् कहा जा सकता है, न असत् । वेदान्त की माया इसी प्रकार की है । वह न सत् है न असद । जैन दर्शन इन चारों प्रकार के एकान्तवादी पक्षों को अधूरा मानता है। वह कहता है कि वस्तु न एकान्तरूप से सत् है, न एकान्तरूप से असत् है, न एकान्तरूप से सत् और असत् है, न एकान्तरूप से सत् और असत् दोनों से अनिर्वचनीय है। यह तो जैनदर्शन-सम्मत तत्त्व की सामान्य चर्चा हुई।
विशेष रूप से जैनदर्शन छः द्रव्य ( तत्त्व ) मानता है। ये छः द्रव्य हैंजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । जीवद्रव्य के विषय में जैनदर्शन की विशेष मान्यता यह है कि संसारी प्रात्मा देह-परिमारण होती है। भारत के किसी अन्य दर्शन में प्रात्मा को स्वदेह-परिमारण नहीं माना जाता। केवल जैन दर्शन ही ऐसा है जो आत्मा को देह-परिमाण मानता है । धर्म और अधर्म की मान्यता भी जैनदर्शन की अपनी विशेषता है । कोई अन्य दर्शन गति और स्थिति के लिए भिन्न द्रव्य नहीं मानता। वैशेषिकों ने उत्क्षेपण आदि को द्रव्य न मान कर कर्म माना है। जैनदर्शन गति के लिए स्वतन्त्र द्रव्यधर्मास्तिकाय मानता है और स्थिति के लिए स्वतन्त्र द्रव्य-अधर्मास्तिकाय मानता है । जनदर्शन की प्राकाश-विषयक मान्यता में भी विशेषता है । लोकाकाश की .. मान्यता अन्यत्र भी है किन्तु अलोकाकाश (केवल आकाश) की मान्यता अन्यत्र नहीं मिलती । पुद्गल की मान्यता में यह विशेषता है कि वैशेषिकादि पृथ्वी