________________
जन-दर्शन में तत्त्व
१७१
आत्मा सर्वगत नहीं है क्योंकि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते | जिसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते वह सर्वगत नहीं होता जैने घट | श्रात्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते, यतः ग्रात्मा सर्वगत नहीं है । जो सर्वगत होता है उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते है - जैसे प्राकार' |
नैयायिक इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि हमारा ग्रदृष्ट सर्वत्र कार्य करता रहता है । उसके रहने के लिए ग्रात्मा को श्रावश्यकता होती है । वह केवल ग्राकाश में नहीं रहता, क्योंकि प्रत्येक ग्रात्मा का अदृष्ट भिन्न-भिन्न है । जब ग्रहृष्ट सर्वव्यापक है तब श्रात्मा भी सर्वव्यापक हो होगी, क्योंकि जहाँ ग्रात्मा होती है वहीं ग्रदृष्ट रहता है। जैन दार्शनिक इस चीज को नहीं मानते । वे कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव होता है, जिसके अनुसार वह कार्य करती है । अग्नि का स्वभाव जलना है, इसलिए यह जनती है। यदि प्रत्येक वस्तु के लिए ग्रहृष्ट की कल्पना की जाएगी तो वायु का तिर्यग् गमन, अग्नि का प्रज्ज्वलन श्रादि जगत् के जितने भी कार्य हैं, सबके लिए ग्रप्ट की सत्ता माननी पड़ेगी । ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु का एक विशिष्ट स्वभाव होता है जिसके अनुसार वह कार्य करती है । यह स्वभाव उसका स्वरूप है, ग्रह-प्रदत्त गुण नहीं ।
दूसरी बात यह है कि यदि सभी वस्तुनों के स्वभाव का निर्माण श्रष्ट द्वारा माना जाय तो ईश्वर के लिए जगत् में कोई स्थान नहीं रहेगा ।
एक प्रश्न यह हो सकता है कि यदि श्रात्मा विभु नहीं है तो शरीर-निर्माण के लिए परमाणुओं को कैसे खीचेगी ? इसका उत्तर यह है कि परी निर्माण के लिए वित्त की आवश्यकता नहीं है । माको माना जाय तो उनका शरीर जगत्परिमाण हो जायगा, क्योंकि जगन्धारी होने से सारे जगत् के परमाणुओं
1-स्वाहायगंज का पृ० ४६
1