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जैन-दर्शन
अात्मा 'स्वदेह परिमाण है' यह लक्षण उन सभी दार्शनिकों की मान्यता का खण्डन करने के लिए है, जो प्रात्मा को सर्वव्यापक मानते हैं । नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि यात्मा का अनेकत्व तो स्वीकृत करते हैं, किन्तु साथ ही साथ यात्मा को सर्वव्यापक भी मानते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापक है उसी प्रकार प्रत्येक प्रात्मा सर्वव्यापक है। भारतीय दर्शनशास्त्र में आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व मान कर भी उसे स्वदेह परिमाण मानना जैन दर्शन की ही विशेषता है। जैन दर्शन के अतिरिक्त कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो प्रात्मा को शरीर परिमारण मानता हो । जैनों का कथन है कि किसी भी प्रात्मा को शरीर से बाहर मानना अनुभव एवं प्रतीति से विपरीत है। हमारी प्रतीति हमें यही बताती है कि जितने परिमाण में हमारा शरीर है उतने ही परिमाण में हमारी आत्मा है । शरीर से बाहर आत्मा का अस्तित्व किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता । जहाँ पर जिस वस्तु के गुण उपलब्ध होते हैं वह वस्तु वहीं पर होती है । कुम्भ वहीं है जहाँ कुम्भ के गुण रूपादि उपलब्ध हैं। इसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व भी वहीं मानना चाहिए, जहाँ आत्मा के गुण ज्ञान, स्मति आदि उपलब्ध हों। ये सारे गुण यद्यपि भौतिक शरीर के नहीं हैं तथापि उपलब्ध वहीं होते हैं जहाँ शरीर होता है, अत: यह मानना ठीक नहीं कि आत्मा सर्वव्यापक है । । ___ कोई यह पूछ सकता है कि गन्ध दूर रहती है फिर भी हम कैसे सूघ लेते हैं ? इसका उत्तर यही है कि गन्ध के परमाण घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचते हैं, इसीलिए हमें गन्ध आती है। यदि घ्राणेन्द्रिय के पास पहुँचे बिना ही गन्ध का अनुभव होने लगे, तो सभी वस्तुओं की गन्ध आ जानी चाहिए। ऐसा नहीं होता, किन्तु जिस 'वस्तु के गन्धाणु हमारी घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचते हैं उसी वस्तु की गन्ध
की प्रतीति होती है । आत्मा के सर्वंगतत्व का खण्डन करने के लिए निम्न हेतु का प्रयोग है- .
१–अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, का० ६