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जैन दर्शन
को खींच लेगी । ऐसी अवस्था में न जाने उसका शरीर कितना भयंकर होगा और शायद सारे जगत् में एक ही शरीर होगा ।
नैयायिक एक और शंका उठाता है । वह कहता है कि आत्मा को शरीर - परिमाण मानने से आत्मा सावयव हो जाएगा और सावयव होने से कार्य हो जाएगा जैसे शरीर स्वयं कार्य है । कार्य होने से आत्मा नित्य हो जाएगी । जैन दार्शनिक इस परिणाम को बड़े गर्व से स्वीकृत करते हैं । वे आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते ही नहीं । इसलिए आत्मा को अनित्य मानना उन्हें इष्ट है । जैनों की मान्यता है कि आत्मा के प्रदेश होते हैं, यद्यपि साधारण अर्थ में ग्रवयव नहीं होते । ग्रात्मा पारिणामिक है, सावयव है, सप्रदेश है । ऐसी स्थिति में अनित्यता का दोष जैनों पर नहीं आता । आत्मा संकोच और विकासशाली हैं अतः एक शरीर से दूसरे में पहुँचने पर उसके परिमाण में परिवर्तन हो जाता है। रामानुज जिस प्रकार ज्ञान को संकोचविकास-शाली मानता है उसी प्रकार जैन दर्शन श्रात्मा को संकोचविकासशाली मानता है ।
आत्मा 'प्रत्येक शरीर में भिन्न है' यह बात उन दार्शनिकों की मान्यता के खण्डन के रूप में कही गई, है, जो आत्मा को केवल एक प्राध्यात्मिक तत्त्व मानते हैं । उनकी मान्यता के अनुसार प्रत्येक ग्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार एक ही शरीर में अनेक आत्माएँ रह सकती हैं, किन्तु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती । नैयायिक आदि दार्शनिक भी अनेक ग्रात्मानों की स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास करते हैं । इस अनेकता की दृष्टि से जैन दर्शन में और उनमें मतैक्य है । ( स्वदेह परिमाण की दृष्टि से जो मतभेद है उसका विचार कर चुके हैं) द्वैत वेदान्त मानता है कि ग्राध्यात्मिक तत्त्व एक ही है । वह सर्वव्यापक है और सर्वत्र समान रूप से रहता है । प्रविद्या के प्रभाव के कारण हम यह समझते हैं कि भिन्न-भिन्न श्रात्माएँ हैं
१ - 'ज्ञानं धर्मः संकोच विकासयोग्यम् ।'
- तत्त्वत्रय, पृष्ठ ३५